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________________ सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २८ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः लोगं विदित्ता आरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारं ॥२८॥ छाया - स वारयित्वा स्त्रियां सरात्रिभक्तामुपधानवान् दुःखक्षयार्थम् । लोक विदित्वाऽऽरं परच सर्व प्रभुरितवान् सर्ववारम् ॥ अन्वयार्थ - (से पभू) वे प्रभू महावीर स्वामी (सराइभत्तं इत्थी वारिया) रात्रि भोजन ओर स्त्री को वर्जिते करके (दुक्खखयट्ठयाए उवहाणव) दुःख के क्षय के लिए तपस्या में प्रवृत थे। (आरं परं च लोगं विदित्ता) इसलोक तथा परलोक को जानकर (सव्ववारं सव्वं वारिय) भगवान् ने सब प्रकार के पापों को छोड़ दिया था। भावार्थ - भगवान महावीर स्वामी ने अपने अष्टविध कमों का क्षपण करने के लिए स्त्री भोग और रात्रि भोजन छोड़ दिया था । तथा सदा तप में प्रवृत रहते हुए इसलोक तथा परलोक के स्वरूप को जानकर सब प्रकार के पापों को सर्वथा त्याग दिया था । टीका - स भगवान् वारयित्वा-प्रतिषिध्य किं तदित्याह- 'स्त्रियम्' इति स्त्रीपरिभोगं मैथुनमित्यर्थः, सह रात्रिभक्तेन वर्तत इति सरात्रिभक्तं, उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यदपि प्राणातिपातनिषेधादिकं द्रष्टव्यं, तथा उपधानंतपस्तद्विद्यते यस्यासौ उपधानवान्-तपोनिष्टप्तदेहः, किमर्थमिति दर्शयति-दुःखयतीति दुःखम् अष्टप्रकारं कर्म तस्य क्षयः- अपगमस्तदर्थ., किञ्च-लोकं विदित्वा 'आरम्' इहलोकाख्यं 'परं' परलोकाख्यं यदि वा- आरं- मनुष्यलोकं पारमिति नारकादिकं स्वरूपस्तत्प्राप्तिहेतुतश्च विदित्वा सर्वमेतत् 'प्रभुः' भगवान् ‘सर्ववार' बहुशो निवारितवान्, एतदुक्तं भवति-प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च स्थापितवान्, न हि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः, तदुक्तम्"ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं स्ववचनविरुदं व्यवहरन्, परालालं कधिहमयितुमदान्तः स्वयमिति । भवानिश्वित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः ||१||" इति, तथा"तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वयवधयंमि । अणिग्रहियबलविरओ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ||१|| इत्यादि " ||२८|| टीकार्थ - भगवान महावीर स्वामी ने स्त्री भोग तथा रात्रि भोजन त्याग दिया था । यह उपलक्षण मात्र है इसलिए भगवान् ने दूसरे पापों को अर्थात् प्राणातिपात आदि को भी छोड़ा था । भगवान् ने तप से अपने शरीर को तपा दिया था । ऐसा उन्होंने क्यों किया था ? सो शास्त्रकार दिखलाते हैं- जो प्राणियों को दुःख देता है उसे दुःख कहते हैं, वह आठ प्रकार का कर्म है, उस कर्म को क्षय करने के लिए भगवान् ने यह किया था । तथा भगवान् ने इस लोक और परलोक को जानकर अथवा मनुष्य लोक तथा नरक आदि के स्वरूप को और उनकी प्राप्ति के कारण को जानकर उक्त सभी पापों को सर्वथा छोड़ दीया था । आशय यह है की भगवान ने स्वयं प्राणातिपात आदि पापों का त्यागकर दूसरों को भी इसी धर्म में स्थापित किया था। जो पुरुष स्वयं धर्म में स्थित नहीं है वह दूसरे को धर्म में स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता है, यही बात इस पद्य में कही है (ब्रुवाणो) अर्थात् जो मनुष्य कहता तो न्यायसङ्गत है परन्तु अपने कथन से विपरीत आचरण करता है, वह स्वयं अजितेन्द्रिय होकर दूसरे को जितेन्द्रिय नहीं बना सकता है, इसलिए हे भगवान् ! आप इस बात को जानकर तथा समस्त जगत् के स्वरूप को निश्चत करके पहले अपने आत्मा को ही दमन करने के लिए प्रवृत्त हुए थे। तथा चार ज्ञान के धनी देवताओं के पूजनीय श्रीतीर्थङ्कर भगवान् मोक्ष की प्राप्ति के लिए अपने बल वीर्य का पूर्ण उपयोग करते हुए समस्त बल के साथ प्रयत्न करते थे ॥२८॥ 1. तीर्थकरचतुर्ज्ञानी सुरमहितः सेधयितव्ये ध्रुवे, अनिगृहितबलवीर्यः सर्वस्थाम्नोधच्छति ॥१॥ ३६०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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