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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २७
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः अन्वयार्थ - (किरियाकिरिय) क्रियावादी, अक्रियावादी (वेणइयाणुवाय) तथा विनयवादी के कथन को (अण्णाणियाणं ठाणं पडियच्च) तथा अज्ञानवादियों के पक्ष को जानकर (से इति सव्ववायं वेयइत्ता) इस प्रकार वे सब वादियों के मन्तव्य को समझकर (संजमदीहराय) जीवन भर के लिए संयम में (उवट्ठिए) स्थित हुए।
भावार्थ - क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी इन सभी मतवादियों के मतों को जानकर भगवान् यावज्जीवन संयम में स्थित रहे थे । ___टीका - तथा स भगवान् क्रियावादिनामक्रियावादिनां वैनयिकानामज्ञानिकानां च 'स्थानं' पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा-स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानं-दुर्गतिगमनादिकं 'प्रतीत्य' परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः, एतेषां च स्वरूपमुत्तरत्र न्यक्षेण व्याख्यास्यामः, लेशतस्त्विदं-क्रियैव परलोकसाधनायालमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तेषां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः, अक्रियवादिनस्तु ज्ञानवादिनः तेषां हि यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः, तथा चोक्तम्“पञ्चविंशतितत्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वापि, सिन्द्यते नात्र संशयः ||१||"
तथा विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशालकमतानुसारिणो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः, तथाऽज्ञानमेवैहिकामुष्मिकायालमित्येवमज्ञानिका व्यवस्थिताः, इत्येवंरूपं तेषामभ्युपगमं परिच्छिद्य स्वतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधेन, तथा स एव वीरवर्धमानस्वामी सर्वमन्यमपि बौद्धादिकं यं कञ्चन वादमपरान् सत्त्वान् यथावस्थिततत्त्वोपदेशेन 'वेदयित्वा' परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यवस्थितो न तु यथा अन्ये, तदुक्तम्“यथा परेषां कथका विदग्धाः, शाखाणि कृत्वा लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारैर्वक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्ति ||१||"
इति 'दीर्घरात्रम्' इति यावज्जीवं संयमोत्थानेनोत्थित इति ॥२७॥ अपिच
टीकार्थ - भगवान महावीर स्वामी ने क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादियों के मतों को जानकर अथवा वे सभी मतवादी दुर्गति में जाते हैं। यह जानकर यावज्जीव संयम पालन किया था। इन मतवादीयों का स्वरूप आगे चलकर स्पष्टरूप से बतलायेंगे तो भी कुछ यहाँ बताते हैं- क्रिया ही परलोक की सिद्धि के लिए पर्याप्त है, ऐसा जो कहते हैं । उनको क्रियावादी कहते हैं। इन क्रियावादियों का सिद्धान्त है कि- क्रियारूप दीक्षा से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। अक्रियावादी ज्ञानवादी हैं, इनके मत में वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानने से ही मोक्ष हो जाता है। जैसे कि इनकी उक्ति है
(पञ्चविंशति) अर्थात् पचीस तत्त्वों को जाननेवाला पुरुष चाहे किसी भी आश्रम में रहे तथा वह जटी हो, मुण्डी हो या शिखाधारी हो, मुक्ति को प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं है। तथा
गोशालक मतवाले विनय से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं, वे विनय से विचरते हैं, इसलिए वे वैनयिक कहे जाते हैं । तथा अज्ञान से ही इस लोक और परलोक की सिद्धि होती है। यह अज्ञानवादियों की मान्यता हैं । इस प्रकार उक्त सभी मतवादियों के मतों को अच्छी तरह समझकर तथा दूसरे बौद्ध आदि मतों को भी जानकर भगवान् महावीर स्वामी प्राणियों को वस्तु के यथार्थ स्वरूप का उपदेश देते हुए संयम में स्थित रहे, वे दूसरे मतवादियों की तरह नहीं थे, सो कहा है- (वीतराग प्रभु की स्तुति करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि) हे प्रभो! दुसरे धर्मवाले आचार्यों में जो वक्तृत्व दोष अर्थात् बोलने के दोष हैं, वे आप में नहीं हैं क्योंकि दूसरे लोग उपदेश देने में बड़ेकुशल हैं । अत एव उन्होंने शास्त्र रचकर भी लघुता को प्राप्त किया है, कारण यह है कि उनके शिष्य तथा वे, जो दूसरे पुरुषों को उपदेश करते हैं, उसके अनुसार स्वयं आचरण नहीं करते हैं परन्तु आपने यावज्जीवन के लीए संयम धारण किया था अर्थात् आप जैसा कहते थे, वैसा आचरण करते थे ॥२७॥
से वारिया इत्थी सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए।
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