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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २५ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः भावार्थ - जैसे सब स्थितिवालों में पाँच अनुत्तर विमानवासी देवता श्रेष्ठ हैं तथा जैसे सब सभाओं में सुधर्मा सभा श्रेष्ठ है एवं सब धर्मों में जैसे निर्वाण (मोक्ष) श्रेष्ठ है, इसी तरह सब ज्ञानियों में भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ है । ___टीका - स्थितिमतां मध्ये यथा 'लवसत्तमाः' पञ्चानुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानः, यदि किल तेषां सप्त लवा आयुष्यकमभविष्यत्ततः सिद्धिगमनमभविष्यदित्यतो लवसत्तमास्तेऽभिधीयन्ते, 'सभानां च' पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छ्रेष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानैरुपेतत्वात्तथा यथा सर्वेऽपि धर्मा 'निर्वाणश्रेष्ठाः' मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्वाणफलमेव स्वदर्शनं ब्रुवते यतः, एवं 'ज्ञातपुत्रात्' वीरवर्धमानस्वामिनः सर्वज्ञात् सकाशात् 'परं' प्रधानं अन्यद्विज्ञानं नास्ति, सर्वथैव भगवानपरज्ञानिभ्योऽधिकज्ञानो भवतीत भावः ॥२४॥ किञ्चान्यत् ___टीकार्थ - सब स्थितिवालों में जैसे लवसप्तम अर्थात् पाँच अनुत्तर विमानवासी देवता उत्कृष्ट स्थितिवाले प्रधान हैं। क्योंकि मनुष्य भव में धर्माचरण करते करते सात लव उनकी आयु अधिक होती तो वे केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जाते इसलिए वे लव सप्तम कहे जाते हैं । तथा सभाओं में जैसे इन्द्र की सभा सुधर्मा श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें अनेक क्रीड़ा के स्थान बने हैं तथा सब धर्मों में जैसे मोक्ष प्रधान है क्योंकि कुप्रावचनिक भी अपने दर्शन का फल मोक्ष ही बतलाते हैं । इसी तरह सर्वज्ञ श्री भगवान् महावीर स्वामी से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञानी नहीं है अतः भगवान् सभी दूसरे ज्ञानियों से सर्वथा श्रेष्ठ हैं । यह भाव है ॥२४॥ पुढोवमे धुणइ विगयगेही, न सण्णिहिं कुव्वति आसुपन्ने । तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अणंतचक्खू ॥२५॥ छाया - पृथ्व्युपमो थुनाति विगतगृद्धिः, न सनिधि करोत्याशुपतः । तरीत्या समुद्रमिव महा भवोधमभयङ्करो वीराऽनन्तचक्षुः ॥ अन्वयार्थ - (पुढोवमे) भगवान् महावीर स्वामी पृथिवी के समान सब प्राणियों के आधार है (धुणइ) तथा वे आठ प्रकार के कर्ममलों को दूर करनेवाले हैं । (विगयगेही) भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में गृद्धि रहित है । (आसुपन्ने) वह शीघ्र बुद्धिवाले हैं (न सण्णिहिं कुव्वति) वह धन, धान्यादि तथा क्रोधादि का सम्पर्क नहीं करते हैं । (समुदं व) समुद्र के समान (महाभवोघं) महान् संसार को (तरिउं) पार करके भगवान् मोक्ष को प्राप्त है । (अभयंकरे वीर अणंतचक्खू) भगवान् प्राणियों को अभय करनेवाले कर्मों को क्षपण करनेवाले और अनन्तज्ञानी है। भावार्थ - भगवान् पृथिवी की तरह समस्त प्राणियों के आधार हैं । वे आठ प्रकार के कर्मों को दूर करनेवाले और गृद्धि रहित हैं। भगवान् तात्कालिक बुद्धिवाले और क्रोधादि के सम्पर्क से रहित हैं। भगवान् समुद्र की तरह अनन्त संसार को पार करके मोक्ष को प्राप्त है । भगवान् प्राणियों को अभय करनेवाले तथा अरविध कर्मों का क्षपण करनेवाले एवं अनन्त ज्ञानी है। टीका - स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाधारा वर्तते तथा सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वा सत्त्वाधार इति, यदिवा-यथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहत इति, तथा 'धुनाति' अपनयत्यष्टप्रकारं कर्मेति शेषः, तथा-'विगता' प्रलीना सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु 'गृद्धिः' गाद्धर्यमभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः, तथा सन्निधानं सन्निधिः, स च द्रव्यसनिधिः धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसनिधिस्तु माया क्रोधादयो वा सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि संनिधिं न करोति भगवान्, तथा 'आशुप्रज्ञः' सर्वत्र सदोपयोगात् न छमस्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते, स एवम्भूतः तरित्वा समुद्रमिवापारं 'महाभवौघं' चतुर्गतिकं संसारसागरं बहुव्यसनाकुलं सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान्, पुनरपि तमेव विशिनष्टि- 'अभयं' प्राणिनां प्राण रक्षारूपं स्वतः परतश्च सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयङ्करः, तथाऽष्टप्रकारं कर्म विशेषेणेरयति-प्रेरयतीति वीरः, तथा 'अनन्तम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वाद्वाऽनन्तं चक्षुरिव चक्षुः- केवलज्ञानं यस्य स तथेति ।।२५।। किञ्चान्यत् ३५७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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