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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २४ करोडों धन को न लेकर जीवन को ही लेगा, क्योंकि सभी प्राणी जीवन चाहते हैं । बाल, स्त्रि आदि लोगों की बुद्धि में दृष्टान्त देकर कही हुई बात झट चढ़ जाती है, इसलिए अभयदान की प्रधानता को बताने के लिए यह कथा कही जाती है वसन्तपुर नगर में अरिदमन नाम के राजा रहते थे, वे अपनी चार रानियों के साथ झरोखे के पास क्रीडा कर रहे थे, उस समय उन्होंने एक चोर को देखा । उस चोर के गले में लाल कनेर की माला पहिनाई गयी थी और उसने लाल वस्त्र पहन रखा था । तथा शरीर पर लाल चन्दन के लपेटे थे । उसके पीछे-पीछे उसके वध की सूचना देनेवाला ढिंढोरा पीटा जा रहा था । तथा उसे चाण्डाल लोग राजमार्ग से ले जा रहे थे। उस चोर को स्त्रियों के साथ राजा देखा । रानियों ने उसे देखकर पूछा कि इसने क्या अपराध किया है ? । तब एक सिपाही ने रानियों से कहा कि इसने दूसरे के द्रव्य का हरण करके राजा की आज्ञा से विरूद्ध कार्य किया है । यह सुनकर एक रानी ने राजा से कहा कि आपने जो पहले मुझ को वर देने की प्रतिज्ञा की थी सो आज दीजिए जिससे मैं इस बिचारे चोर का कुछ उपकार कर सकूं । राजा ने वर देना स्वीकार किया इसके पश्चात् उस रानी ने उस चोर को स्नान कराकर उत्तम अलङ्कारों से सुशोभित करके हजार मोहरों के व्यय से एक दिन शब्दादि पाँच विषयों का भोग दिया । इसके पश्चात् दूसरी रानी ने भी दूसरे दिन एक लाख मोंहरें खर्च करके उसे सब प्रकार के भोग दिये । तीसरी ने तीसरे दिन एक कोटी मोहरें खर्च करके उसे सब प्रकार के आनंद दिये । चोथी रानी ने राजा की अनुमति लेकर उसे अभयदान देकर मरण से बचाया । तब तीन रानियाँ चौथी रानी की हँसी करने लगी, वे कहने लगी कि यह बडी कृपण है, इसने इस बिचारे को कुछ नहीं दिया । चौथी कहने लगी कि मैने तुम सब से ज्यादा इसका उपकार किया है । इस प्रकार उन रानियों में उस चोर का किसने ज्यादा उपकार किया है । इस विषय में विवाद होने लगा । इसमें राजा ने उस चोर को ही बुलाकर पूछा कि - "तुम्हारा ज्यादा उपकार किसने किया है" ? यह सुनकर चोर ने कहा कि- मैं मरण भय से बहुत भयभीत था, इसलिए स्नान आदि सुख को मैं नहीं जान सका परन्तु जब मेरे कान में यह अवाज आई कि मैंने मरण से रक्षा पायी है तो मेरे आनन्द की सीमा न रही, अब मैं अपने को फिर से जन्मा हुआ मानता हूँ । अतः सब दानों में अभयदान श्रेष्ठ है यह बात सिद्ध हुई । तथा सत्य वाक्यों में जो वाक्य दूसरे को पीड़ा उत्पन्न नहीं करते हैं, उसे श्रेष्ठ कहते है, परन्तु जिससे दूसरे को पीड़ा होती है वह सत्य नहीं है, क्योंकि जो सज्जनों का हितकारी है, उसे सत्य कहते हैं । कहा है कि (लोकेऽपि) अर्थात् जगत् में यह बात सुनी जाती है कि कौशिक मुनि वध युक्त सत्य बोलकर तीव्र वेदनावाले नरक में पड़े थे । तथा श्रीवीरस्तुत्यधिकारः (तहेव) अर्थात काणे को काणा, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर नहीं कहना चाहिए। तथा तप में नौ प्रकार की गुप्ति युक्त ब्रह्मचर्य प्रधान है । इसी तरह सब लोक से उत्तम रूप सम्पत्ति, तथा सबसे उत्कृष्ट शक्ति और क्षायिक ज्ञान, दर्शन एवं शील के द्वारा श्रमण भगवान् महावीर स्वामी प्रधान हैं ||२३|| ठिईण सेट्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा । निवाणसेट्ठा जहा सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी छाया - ३५६ स्थितीनां श्रेष्ठाः लवसप्तमा वा. सभा सुधर्मा व सभानां श्रेष्ठा । निर्वाणश्रेष्ठा यथा सर्वे धर्माः, न ज्ञातपुत्रात् परोऽस्ति ज्ञानी ॥ ॥२४॥ अन्वयार्थ (ठिईण) जैसे स्थितिवालों में (लवसत्तमा सेट्ठा) पाँच अनुत्तर विमानवासी देवता श्रेष्ठ हैं तथा ( सुहम्मा व सभा) जैसे सुधर्मा सभा (सभाण सेट्ठा) सब सभाओं में श्रेष्ठ हैं (जहा सव्वधम्मा निव्वाणसेट्ठा) तथा सब धर्मों में जैसे निर्वाण (मोक्ष) श्रेष्ठ है ( ण णायपुत्ता परमत्यि नाणी) इसी तरह ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी से कोई श्रेष्ठ ज्ञानी नहीं है ।
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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