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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २२
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः अन्वयार्थ - (हत्थिसु) हाथिओं में (णाए) जगप्रसिद्ध (एरावणमाहु) ऐरावण हाथी को प्रधान कहते हैं (मिगाणं सीहो) तथा मृगों में सिंह प्रधान है (सलिलाण गंगा) एवं जलों में गझा प्रधान है (पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो) पक्षियों में वेणुदेव गरुड़ प्रधान हैं (निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते) और मोक्षवादिओं में ज्ञात पुत्र भगवान् महावीर स्वामी प्रधान है।
भावार्थ - हाथियों में ऐरावण, मृगों में सिंह, नदिओं में गङ्गा, और पक्षियों में जैसे वेणुदेव गरुड़ श्रेष्ठ हैं इसी तरह मोक्षवादियों में भगवान महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं ।
टीका - 'हस्तिषु' करिवरेषु मध्ये यथा 'ऐरावणं' शक्रवाहनं 'ज्ञात' प्रसिद्धं दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञाः 'मगाणां' च श्वापदानां मध्ये यथा 'सिंहः' केशरी प्रधानः, तथा भरतक्षेत्रापेक्षया 'सलिलानां' मध्ये यथा गङ्गासलिलं प्रधानभावमनुभवति, 'पक्षिषु' मध्ये यथा गरुत्मान् वेणुदेवापरनामा प्राधान्येन व्यवस्थित एवं निर्वाणं-सिद्धिक्षेत्राख्यं कर्मच्युतिलक्षणं वा स्वरूपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वा वदितुं शीलं येषां ते तथा तेषां मध्ये ज्ञाता:- क्षत्रियास्तेषां पुत्रःअपत्यं ज्ञातपुत्रः- श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामी स प्रधान इति, यथावस्थितनिर्वाणार्थवादित्वादित्यर्थः ॥२१।। अपि च
टीकार्थ - प्रधान वस्तुओं को जाननेवाले बुद्धिमान पुरुष हाथिओं में जगत् प्रसिद्ध या दृष्टान्त स्वरूप इन्द्र के वाहन ऐरावण नामक हाथी को सबसे प्रधान कहते हैं । तथा पशुओं के मध्य में जैसे केशरी सिंह प्रधान है तथा भरत क्षेत्र की अपेक्षा से जैसे सब जलों में गङ्गाजल प्रधान है एवं पक्षियों में जैसे वेणुदेव नामक गरुड़ प्रधान हैं, इसी तरह निर्वाणवादियों में भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । निर्वाण, सिद्धि क्षेत्र को कहते हैं अथवा कर्मक्षय, का नाम निर्वाण है। उसके स्वरूप और उपाय के द्वारा उसकी प्राप्ति जो बताते हैं, उन्हें निर्वाणवादी कहते हैं। उन निर्वाणवादियों के मध्य में ज्ञात नामक क्षत्रियों के पुत्र श्रीमन्महावीर वर्धमान स्वामी प्रधान हैं, क्योंकि निर्वाण के यथार्थ स्वरूप को वे बताते हैं, यह अर्थ है ॥२१॥
जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु । खत्तीण सेटे जह दंतवक्के, इसीण सेढे तह वद्धमाणे
॥२२॥ छाया - योथेषु ज्ञातो यथा विश्वसेनः, पुष्पेषु वा यथाऽरविन्दमाहुः ।
क्षत्रियाणां श्रेष्ठो यथा दान्तवाक्यः, ऋषीणां श्रेष्ठस्तथा वर्धमानः ॥ अन्वयार्थ - (जह) जैसे (णाए) जगप्रसिद्ध (वीससेणे) विश्वसेन (जोहेसु सेढे) योद्धाओं में श्रेष्ठ है (जह) तथा जैसे (पुप्फेषु) फूलों में (अरविंदमाहु) अरविन्द (कमल) को श्रेष्ठ कहते है (जह) तथा जैसे (खत्तीण दंतवक्के सेट्टे) क्षत्रियों में दान्तवाक्य श्रेष्ठ है (तह) इसी तरह (इसीण) ऋषियों में (वद्धमाणे सेट्टे) वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ है ।
भावार्थ - जैसे योद्धाओ में विश्वसेन प्रधान हैं तथा फूलों में जैसे अरविन्द (कमल) प्रधान है एवं क्षत्रियों में जैसे दान्तवाक्य प्रधान हैं इसी तरह ऋषियों में वर्धमान स्वामी प्रधान है।
टीका - योधेषु मध्ये 'ज्ञातो' विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरङ्गबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेन:- चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्दं प्रधानमाहुः, तथा क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां मध्ये दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्यः= चक्रवर्ती यथाऽसौ श्रेष्ठः। तदेवं बहून् दृष्टान्तान् प्रशस्तान् प्रदाधुना भगवन्तं दालन्तिकं स्वनामग्राहमाह तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान् वर्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति ॥२२॥ तथा
टीकार्थ - हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल इन चार अङ्गोंवाले बल के सहित जिसकी सेना है, वह जगत्प्रसिद्ध अथवा दृष्टान्तभूत चक्रवर्ती सब योद्धाओं में प्रधान हैं तथा फूलों में कमल को श्रेष्ठ कहते हैं एवं शत्रुभय से जो प्राणियों की रक्षा करता है उन क्षत्रियों के मध्य में जिसके वाक्य से ही शत्रु शान्त हो जाते थे ऐसे दान्तवाक्य चक्रवर्ती प्रधान है। (इस प्रकार बहुत उत्तम दृष्टान्तों को बताकर अब दार्टान्त स्वरूप भगवान् का नाम लेकर 1. त्यभिप्रायः प्र.
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