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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २०-२१ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः ___टीका - यथा शब्दानां मध्ये 'स्तनितं' मेघगर्जितं तद् 'अनुत्तरं' प्रधानं, तुशब्दो विशेषणार्थः समुच्चयार्थो वा, 'तारकाणां च' नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः, 'गन्धेषु' इति गुणगुणिनोरभेदान्मतुब्लोपाद्वा गन्धवत्सु मध्ये यथा 'चन्दनं' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः, एवं 'मुनीनां' महर्षीणां मध्ये भगवन्तं नास्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमाहुरिति ॥१९॥ अपिच टीकार्थ - सब शब्दों में जैसे मेघ गर्जन प्रधान है (तु शब्द विशेषणार्थक या समुच्चयार्थक है) तथा नक्षत्रों के मध्य में जैसे कान्ति के द्वारा सबको आनन्द देनेवाले महानुभाव चन्द्रमा प्रधान हैं तथा गन्ध (गुण गुणी के अभेद से) अर्थात गन्धवाले पदार्थों में जैसे गोशीर्ष अथवा मलय चन्दन श्रेष्ठ है, इसी तरह मनियों के मध्य में इस लोक तथा परलोक के सुख की कामना नहीं करनेवाले भगवान् महावीर स्वामी को विद्वान् लोग श्रेष्ठ कहते हैं ॥१९॥ जहा सयंभू उदहीण सेढे, नागेसु वा धरणिंदमाहु सेढे । खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवहाणे मुणिवेजयंते ॥२०॥ छाया - यथा स्वयम्भूरुदधीनां श्रेष्ठः, नगेषु वा धरणेन्द्र श्रेष्ठमाहु । इक्षुरसोदको वा रसवेजयन्तः, तपउपधाने मुनि वैजयन्तः ॥ अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (उदहीण) समुद्रों में (सयंभू सेटे) स्वयम्भूरमण समुद्र श्रेष्ठ है (नागेसु) तथा नागों में (धरणिंद सेढे आहु) धरणेन्द्र को जैसे श्रेष्ठ कहते है, (खोओदए वा रस वेजयंते) एवं इक्षुरसोदक समुद्र जैसे सब रसवालों में प्रधान है (तवोवहाणे मुणिवेजयंते) इसी तरह तप के द्वारा मुनिश्री भगवान् महावीर स्वामी सबसे प्रधान है। भावार्थ - जैसे सब समुद्रों में स्वयम्भूरमण समुद्र प्रधान है तथा जैसे नागों में धरणेन्द्र सर्वोत्तम हैं एवं जैसे सब रसवालों में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ है, इसी तरह सब तपस्वियों में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । टीका - स्वयं भवन्तीति स्वयम्भूवो-देवाः ते तत्रागत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः तदेवम् 'उदधीनां' समुद्राणां मध्ये यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रः समस्तद्वीपसागरपर्यन्तवर्ती 'श्रेष्ठः' प्रधानः, 'नागेषु च' भवनपतिविशेषेषु 'धरणेन्द्र' धरणं यथा श्रेष्ठमाहुः, तथा 'खोओदए' इति इक्षुरस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः स यथा रसमाश्रित्य 'वैजयन्तः' प्रधानः स्वगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थितः एवं 'तपउपधानेन' विशिष्टतपोविशेषेण मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति 'मुनिः' भगवान् 'वैजयन्तः' प्रधानः, समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्तीवोपरि व्यवस्थित इति ॥२०॥ टीकार्थ - जो अपने आप उत्पन्न होते हैं, वे स्वयम्भू कहलाते हैं । देवताओं को स्वयम्भू कहते हैं। वे देवता वहां आकर क्रीड़ा करते है, इसलिए उसे स्वयम्भूरमण कहते हैं। समस्त द्वीप और समुद्रों के अन्त में वर्तमान वह स्वयम्भरमण समद्र जैसे सब समद्रों में श्रेष्ठ है तथा नागों में अर्थात भवनपतिविशेषों में जैसे धरणेन्द्र को श्रेष्ठ कहते हैं एवं ईख के रस के समान जिसका जल मधुर है वह इक्षुरसोदक समुद्र जैसे समस्त रसवालों में प्रधान है क्योंकि वह अपने माधुर्यगुणों से सब समुद्रों की पताका के समान स्थित है. इसी तरह जगत् के तीनों काल की अवस्था को जाननेवाले भगवान् महावीर स्वामी विशिष्ट तपस्या के द्वारा समस्त लोक की पताका के समान सबके ऊपर स्थित हैं ॥२०॥ हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा । पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते छाया - हस्तिष्वेरावणमाहुति, सिंहो मृगाणां सलिलानां गङ्गा । पक्षिषु वा गरुडो वेणुदेवो, निर्वाणवादिनामिह ज्ञातपुत्रः ।। ॥२१॥ ३५३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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