________________
सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १८-१९
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः टीकार्थ - तथा वह भगवान् महावीर स्वामी शैलेशी अवस्था से उत्पन्न शुक्ल ध्यान के चौथे भेद को ध्याकर पश्चात् जिसका आदि है परन्तु अन्त नहीं है, ऐसी पाँचवी सिद्धिगति को प्राप्त हुए । उस सिद्धिगति का विशेषण बताते हैं- वह सिद्धि. सबसे उत्तम है तथा सर्व लोक के अग्र भाग में स्थित होने के कारण परम गति को भगवान् प्राप्त हुए। भगवान् अत्यन्त उग्र तपस्या से अपने शरीर को तपाकर तथा ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मों को विशिष्ट अर्थात् क्षायिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के द्वारा क्षपण कर सिद्धि को प्राप्त हुए ॥१७॥
-- पुनरपि दृष्टान्तद्वारेण भगवतः स्तुतिमाह
- फिर दृष्टान्त देकर भगवान् की शास्त्रकार स्तुति करते हैंरुक्खेसु णाते जह सामली वा, जस्सि रति वेययती सुवन्ना । वणेसु वा णंदणमाहु सेढे, नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने
॥१८॥ छाया - वृक्षेषु ज्ञातो यथा शाल्मली वा, यस्मिन् रति वेदयन्ति सुपर्णाः ।
वनेषु वा नन्दनमाहुः श्रेष्ठ, ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः || अन्वयार्थ - (जह) जैसे (रुक्खेसु) वृक्षों में (णाते) जगप्रसिद्ध (सामली) सेमर वृक्ष है (जस्सि) जिसपर (सुवन्ना) सुपर्णलोग (रर्ति वेययती) आनन्द अनुभव करते है (वणेसु वा णंदणं सेटें आहु) तथा जैसे वनों में सबसे श्रेष्ठ नन्दन वन को कहते हैं (नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने) इसी तरह ज्ञान और चारित्र के द्वारा उत्तमज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहते हैं।
भावार्थ - जैसे वृक्षों में सुवर्ण नामक देवताओं का क्रीडास्थान शाल्मली वृक्ष श्रेष्ठ है, तथा वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ है, इसी तरह ज्ञान और चारित्र में भगवान् महावीर स्वामी सबसे श्रेष्ठ हैं।
___टीका - वृक्षेषु मध्ये यथा 'ज्ञातः' प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, स च भवनपतिक्रीडास्थानं, 'यत्र' व्यवस्थिता अन्यतश्चागत्य 'सुपर्णा' भवनपतिविशेषा 'रति' रमणक्रीडां 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधान एवं भगवानपि 'ज्ञानेन' केवलाख्येन समस्तपदार्थाविर्भावकेन 'शीलेन' च चारित्रेण-यथाख्यातेन 'श्रेष्ठः' प्रधानः 'भूतिप्रज्ञः' प्रवृद्धज्ञानो भगवानिति ।।१८।। अपि च
टीकार्थ - जैसे वक्षों के मध्य में देवकर में स्थित प्रसिद्ध शाल्मली वृक्ष श्रेष्ठ है, जो भवनपतियों का क्रीडास्थान है, जिस पर दूसरे स्थानों से आकर सुपर्ण अर्थात् भवनपति विशेष आनन्द अनुभव करते हैं तथा वनों के मध्य में जैसे देवताओं का क्रीडास्थान नन्दन वन प्रधान है, इसी तरह भगवान् भी समस्त पदार्थों को प्रकट करनेवाले केवलज्ञान और यथाख्यात चारित्र के द्वारा सबसे प्रधान हैं। वह भूतिप्रज्ञ अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञानवाले हैं ॥१८॥
थणियं व सहाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाहु सेढें, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु
॥१९॥ छाया - स्तनितमिव शब्दानामनुत्तरस्तु चन्द्रहव ताराणां महानुभावः
_गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठमेवं मुनीनामप्रतिज्ञमाहुः ।
अन्वयार्थ - (सहाण) शब्दों में (थणियं व) मेघगर्जन (अणुत्तरे) जैसे प्रधान है (ताराण) और ताराओं में (महाणुभावे चंदो) जैसे महानुभाव चन्द्रमा श्रेष्ठ है (गंधेसु वा चंदणं सेट्ठ आहु) तथा गन्धवालों में जैसे चन्दन श्रेष्ठ है (एवं) इसी तरह (मुणीणं मुनिओं में (अपडिनमाहु) कामना रहित भगवान् महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहते हैं ।
भावार्थ - जैसै सब शब्दों में मेघ का गर्जन प्रधान है और सब ताराओं में चन्द्रमा प्रधान हैं तथा गन्धवालों में जैसे चन्दन प्रधान है, इसी तरह सब मुनिओं में कामना रहित भगवान् महावीर स्वामी प्रधान है।
३५२