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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १६-१७
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाई। सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं,संखिंदुएगंतवदातसुक्कं
॥ १६॥ छाया - अनुत्तरं धर्ममुदीरयित्वाऽनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति ।
सुशुक्लशुक्लमपगण्डशुक्ल, शंखेन्दुवदेकान्तावदातशुक्लम् ॥ अन्वयार्थ - (अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता) भगवान् महावीर स्वामी सर्वोत्तम धर्म बतलाकर (अणुत्तरं झाणवरं झियाई) सर्वोत्तम ध्यान ध्याते थे (सुसुक्कसुक्क) भगवान का ध्यान अत्यन्त शुक्लवस्तु के समान शुक्ल था (अपगंडसुक्कं) तथा वह दोषवर्जित शुक्ल था (संखिंदुएगंतवदातसुक्कं) वह शंख तथा चन्द्रमा के समान एकान्त शुक्ल था ।
भावार्थ - भगवान महावीर स्वामी, सर्वोत्तम धर्म बताकर सर्वोत्तम ध्यान ध्याते थे । उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान दोष वर्जित शुक्ल था तथा शंख और चन्द्रमा के समान शुद्ध था ।
____टीका - नास्योत्तरः- प्रधानोऽन्यो धर्मो विद्यते इत्यनुत्तरः तमेवम्भूतं धर्मम् 'उत्' प्राबल्येन 'ईरयित्वा' कथयित्वा प्रकाश्य 'अनुत्तरं प्रधानं 'ध्यानवरं' ध्यानश्रेष्ठं ध्यायति, तथाहि- उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्म काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थ शुक्लध्यानभेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्ताख्यं ध्यायति, एतदेव दर्शयति-सुष्टु शुक्लवत्शुक्लं ध्यानं तथा अपगतं गण्डम्- अपद्रव्यं यस्य तदपगण्डं निर्दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं यदिवा-अपगण्डम्-उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः । तथा शङ्खन्दुवदेकान्तावदातं-शुभ्रंशुक्लं-शुक्लध्यानोत्तरं भेदद्वयं ध्यायतीति ।।१६।। अपिच
टीकार्थ - जिससे श्रेष्ठ दूसरा धर्म नहीं है, उसे अनुत्तर कहते हैं, ऐसे धर्म को अच्छी तरह प्रकाश करके भगवान् उत्तम ध्यान ध्याते थे । भगवान् को जब ज्ञान उत्पन्न हो गया तब वह योग निरोध काल में सूक्ष्म काययोग को रोकते हुए शुक्ल ध्यान का तृतीय भेद जो सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपात कहा जाता है, उसे ध्याते थे और जब वे निरूद्ध योग हुए तब चौथा शुक्ल ध्यान का भेद जो व्युपरतक्रिय और अनिवृत्त कहलाता है, उसे ध्याते थे । यही शास्त्रकार दिखलाते हैं- जो ध्यान अत्यन्त शुक्ल की तरह शुक्ल है तथा जिससे दोष हट गया है अर्थात् जो निर्दोष अर्जुन सुवर्ण के समान शुक्ल है अथवा जल के फेन को अपगण्ड कहते हैं, उसके समान जो शक्ल है तथा शंख और चन्द्रमा के समान जो एकान्त शुक्ल है, ऐसे शुक्ल ध्यान के दो भेदों का भगवान् ध्यान करते थे ॥१६॥
अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण
॥१७॥ छाया - अनुत्तराव्यां परमां महर्षिरशेषकर्माणि विशोध्य ।
सिद्धि गतः सादिमानन्तप्रज्ञो, ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन ॥ अन्वयार्थ - (महेसी) महर्षि भगवान् महावीर स्वामी (नाणेण सीलेण य दंसणेण) ज्ञान, चारित्र और दर्शन के द्वारा (असेसकम्म) समस्त कर्मों को (विसोहइत्ता) शोधन करके (अनुत्तरगं) सर्वोत्तम (परमं सिद्धिं गते) परम सिद्धि को प्राप्त हुए (साइमणंतपत्ते) जिस सिद्धि की आदि है परन्तु अन्त नहीं है।
भावार्थ - महर्षि भगवान महावीर स्वामी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रभाव से ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मों का क्षय करके सर्वोत्तम उस सिद्धि को प्राप्त हुए, जिसका आदि है परन्तु अन्त नहीं है ।
टीका - तथाऽसौ भगवान् शैलेश्यवस्थापादितशुक्लध्यानचतुर्थभेदानन्तरं साद्यपर्यवसानां सिद्धिगति पञ्चमी प्राप्तः, सिद्धिगतिमेव विशिनष्टि- अनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमत्वादया च लोकाग्रव्यवस्थितत्वादनुत्तराय्या तां 'परमां' प्रधानां 'महर्षिः' असावत्यन्तोग्रतपोविशेषनिष्टप्तदेहत्वाद् अशेषं कर्म-ज्ञानावरणादिकं 'विशोध्य' अपनीय च विशिष्टेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेन च क्षायिकेण सिद्धिगति प्राप्त इति मीलनीयम् ॥१७॥