SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १५ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः टीका - एतदनन्तरोक्तं 'यशः' कीर्तनं सुदर्शनस्य मेरुगिरेः महापर्वतस्य प्रोच्यते, साम्प्रतमेतदेव भगवति दार्टान्तिके योज्यते-एषा-अनन्तरोक्तोपमा यस्य स एतदुपमः, कोऽसौ ?- श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टप्तदेहो ज्ञाताःक्षत्रियास्तेषां पुत्रः श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामीत्यर्थः, स च जात्या सर्वजातिमद्भ्यो यशसा अशेषयशस्विभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलदर्शनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्तशीलवद्भ्यः श्रेष्ठ:- प्रधानः, अक्षरघटना तु जात्यादीनां कृतद्वन्द्वानामतिशायने 'अर्शआदित्वादच्प्रत्ययविधानेन विधेयेति ॥१४॥ टीका - पहले वर्णन किये अनुसार पर्वत श्रेष्ठ सुर्दशन सुमेरु गिरि का यश बताया जाता है, अब वही यश भगवान् महावीर स्वामी में जोड़ते हुए शास्त्रकार कहते हैं- पूर्वोक्त सुमेरु पर्वत की उपमा भगवान् को है- वह भगवान कौन हैं ? जो तपस्या में श्रम करनेवाले हैं अर्थात् तप से अपने शरीर को जितना तप्त किया है तथा जो ज्ञात नामक क्षत्रियों के पुत्र हैं, ऐसे श्रीमन्महावीरस्वामी मेरु के तुल्य हैं । वह जाति में सब जातिवालों से श्रेष्ट हैं तथा यश में समस्त यशस्वियों से उत्तम हैं एवं ज्ञान तथा दर्शन में समस्त दर्शन और ज्ञानवालों में प्रधान हैं, एवं शील में वह समस्त शीलवानों में उत्तम हैं । अक्षर योजना इस प्रकार करनी चाहिए । जाति आदि पदार्थों में द्वन्द्व समास करके अर्श आदित्वात् अच् प्रत्यय करके जात्यादि पद का साधुत्व करना चाहिए ॥१४॥ - पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतो व्यावर्णनमाह - और भी दृष्टान्त के द्वारा ही भगवान का स्वरूप दर्शाने के लिए कहते हैंगिरीवरे वा निसहाऽऽययाणं, रुयए व सेढे वलयायताणं । तओवमे से जगभूइपन्ने, मुणीण मज्झे तमुदाहु पन्ने ॥१५॥ छाया - गिरिवर इव निषध आयतानां, रुचक इव श्रेष्ठः वलयायतानाम् तदुपमः स जगभूतिप्रज्ञः, मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्रज्ञाः । अन्वयार्थ - (आययाणं गिरिवरे निसहा वा) जैसे लम्बे पर्वतों में निषध प्रधान है तथा (वलयायताणं रूयए व सेठे) वर्तुल पर्वतों में जैसे रुचक पर्वतश्रेष्ठ है (जगभूइपन्ने) जगत् में सबसे अधिक बुद्धिमान् भगवान महावीर स्वामी की (तओवमे) वही उपमा है (पन्ने) बुद्धिमान् पुरुष (मुणीण मज्झे तमुदाहु) मुनियों के मध्य में भगवान् को श्रेष्ठ कहते हैं। भावार्थ - जैसे लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत श्रेष्ठ है तथा वर्तुल पर्वतों में रुचक पर्वत उत्तम है, इसी तरह संसार के सभी मुनियों में अद्वितीय बुद्धिमान् भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ है, यह बुद्धिमान् पुरुष बतलाते हैं। टीका - यथा 'निषधो' गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैर्येण 'श्रेष्ठः' प्रधानः तथा- वलयायतानां मध्ये रुचकः पर्वतोऽन्येभ्यो वलयायतत्वेन यथा प्रधानः, स हि रुचकद्वीपान्तवर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायत: सङ्खयेययोजनानि परिक्षेपेणेति, तथा स भगवानपि तदुपमः यथा तावायतवृत्तताभ्यां श्रेष्ठौ एवं भगवानपि जगति-संसारे भूतिप्रज्ञः- प्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः तथा अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः 'उदाहुः' उदाहृतवन्त उक्तवन्त इत्यर्थः ॥१५॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ - जैसे जम्बूद्वीप में अथवा दूसरे द्वीपों में सभी लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत श्रेष्ठ है तथा वर्तुलाकार पर्वतों में जैसे रुचक पर्वत सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि वह रूचकद्वीप के अन्दर रहनेवाला मानुषोत्तर पर्वत के समान वर्तुल और दीर्घ है तथा उसका विस्तार संख्येय योजन है। इसी तरह भगवान् भी हैं अर्थात् जैसे वे दो पर्वत लम्बाई और वर्तुलाकार में सबसे प्रधान हैं इसी तरह भगवान् भी संसार में सब बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं तथा वह सभी मुनियों में श्रेष्ठ हैं, यह उनका स्वरूप जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुष कहते हैं ॥१५॥ 1. मत्वर्थीयात् अप्र० प्र०। 2. वृत्तायतोऽसं० प्र० न चैतद्युक्तं । ३५०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy