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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १३-१४ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः महीइ मज्झमि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धलेसे । एवं सिरिए उ स भूरिवन्ने, मणोरमे जोयइ अच्चिमाली ॥१३॥ छाया - मह्यां मध्ये स्थितो नगेन्द्रः प्रज्ञायते सूर्यशुद्धलेश्यः ।। एवं श्रिया तु स भूरिवर्णः मनोरमो द्योतयत्यर्चिमाली ॥ अन्वयार्थ - (णगिंदे) वह पर्वतराज (महीइ ममंमि) पृथिवी के मध्य में (ठिते) स्थित है (सूरियसुद्धलेसे) वह सूर्य के समान शुद्ध कान्तिवाला (पन्नायते) प्रतीत होता है (एवं) इसी तरह (सिरीए उ) वह अपनी शोभा से (भूरिवन्ने) अनेक वर्णवाला (मणोरमे) और मनोहर है (अच्चिमाली) वह सूर्य की तरह (जोयइ) सब दिशाओं को प्रकाश करता है। भावार्थ - वह पर्वतराज, पृथिवी के मध्यभाग में स्थित है, वह सूर्य के समान कान्तिवाला है, वह अनेक वर्णवाला और मनोहर है । वह सूर्य के समान सब दिशाओं को प्रकाश करता है । टीका - 'मह्यां' रत्नप्रभापृथिव्यां मध्यदेशे जम्बूद्वीपस्तस्यापि बहुमध्यदेशे सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवन्तदंष्ट्रापर्वतचतुष्टयोपशोभितः, समभूभागे दशसहस्रविस्तीर्णः, शिरसि सहस्रमेकमधस्तादपि दश सहस्राणि, नवतियोजनानि योजनैकादशभागैर्दशभिरधिकानि विस्तीर्णः, चत्वारिंशद्योजनोच्छ्रितचूडोपशोभितो 'नगेन्द्रः' पर्वतप्रधानो मेरुः प्रकर्षेण लोके ज्ञायते, 'सूर्यवच्छुद्धलेश्यः' - आदित्यसमानतेजाः, 'एवम्' अनन्तरोक्तप्रकारया श्रिया तुशब्दाद्विशिष्टतरया स:- मेरुः 'भूरिवर्णः' अनेकवर्णो अनेकवर्णरत्नोपशोभितत्वात् मनः- अन्तःकरणं रमयतीति मनोरमः 'अर्चिमालीव' आदित्य इव स्वतेजसा द्योतयति दशापि दिशः प्रकाशयतीति ॥१३॥ टीकार्थ - रत्नप्रभा पृथिवी के मध्य भाग में जम्बूद्वीप है । उसके बराबर मध्यभाग में सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन और माल्यवान इन चार दंष्टा पर्वतों से सुशोभित, समभूभाग में दश हजार योजन दि एक हजार योजन विस्तारवाला, फिर नीचे दश हजार योजन विस्तारवाला, एवं प्रत्येक नब्बे योजन पर एक योजन के ग्यारहवें भाग कम विस्तारवाला, बाकी के योजन के दश भाग विस्तारवाला (अर्थात ज्यों ज्यों ऊंचा चढ़े त्यों त्यों कम विस्तारवाला होता जाय) ऐसा मेरु पर्वत है। उसके शिर पर ४० योजन की ऊँची चोटी है । तथा पर्वतों में प्रधान मेरु पर्वत की सूर्य के समान शुद्ध लेश्या अर्थात् सूर्य की तरह प्रकाश है । ऊपर बतायी हुई विशिष्ट । वह पर्वत अनेक रत्नों से शोभित होने के कारण अनेक वर्णवाला है । वह मन को प्रसन्न करनेवाला तथा सूर्य की तरह अपने तेज से दश दिशाओं को प्रकाशित करता है ॥१३॥ - साम्प्रतं मेरुदृष्टान्तोपक्षेपेण दान्तिकं दर्शयति - मेरु का दृष्टान्त बताकर अब शास्त्रकार दार्टान्त बताते हैं । सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुच्चई महतो पव्वयस्स । एतोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदसणनाणसीले ॥१४॥ छाया - सुदर्शनस्येव यशो गिरेः प्रोच्यते महतः पर्वतस्य । एतदुपमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः जातियशोदर्शनहानशीलः || अन्वयार्थ - (महतो पव्वयस्स) महान् पर्वत (सुदंसणस्स गिरिस्स) सुदर्शन गिरि का (जसो) यश (पवुच्चई) पूर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है। (समणे नायपुत्ते एतोवमे) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की उपमा इसी पर्वत से दी जाती है (जातीजसोदसणणाणलीले) भगवान् जाति, यश, दर्शन ज्ञान और शील में सबसे श्रेष्ठ है। भावार्थ - पर्वतों में मेरु पर्वत का यश पर्वोक्त प्रकार से बताया जाता है। भगवान महावीर स्वामी की इसी पर्वत से दी जाती है । जैसै सुमेरु अपने गुणों के द्वारा सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, इसी तरह भगवान् जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सबसे प्रधान है। ३४९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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