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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १२ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः उसकी परिक्रमा करते रहते हैं । वह सुनहरी रङ्गवाला और बहुत नन्दन वनों से युक्त है, उस पर महेन्द्र लोग आनन्द अनुभव करते हैं। ___टीका - 'नभसि' 'स्पृष्टो' लग्नो नभो व्याप्य तिष्ठति तथा भूमिं चावगाह्य स्थित इति ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकसंस्पर्शी, तथा 'यं' मेरु 'सूर्या' आदित्या ज्योतिष्का 'अनुपरिवर्त्तयन्ति' यस्य पार्श्वतो भ्रमन्तीत्यर्थः, तथाऽसौ 'हेमवर्णो' निष्टप्तजाम्बूनदाभः, तथा बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि-भूमौ भद्रशालवनं, ततः प योजनशतान्यारुह्य मेखलायां नन्दनं, ततो द्विषष्टियोजनसहस्राणि पञ्चशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं, ततः षट्त्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य शिखरे पण्डकवनमिति, तदेवमसौ चतुर्नन्दनवनाथुपेतो विचित्रक्रीडास्थानसमन्वितः, यस्मिन् महेन्द्रा अप्यागत्य त्रिदशालयाद्रमणीयतरगुणेन 'रति' रमणक्रीडां 'वेदयन्ति' अनुभवन्तीति ॥११॥ अपि च टीकार्थ - वह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता हुआ तथा पृथिवी को अवगाहन करके स्थित है । वह, ऊपर नीचे और तिरछे रहनेवाले लोक को स्पर्श करनेवाला है । तथा आदित्य यानी ग्रह नक्षत्रादि उस पर्वत के किनारे भ्रमण करते हैं । वह तपा हुआ सोने के समान पीत वर्णवाला है एवं उसके ऊपर चार नंदनवन है । जैसे कि भूमिमय विभाग में भद्रशाल वन है, उसके उपर मेखला प्रदेश में नंदनवन है, उससे उपर पाँचसो बासठ हजार चढ़कर फिर पाँच सौ योजन चढ़कर सौमनस वन है, उससे ऊपर छत्तीस हजार योजन चढ़कर शिखर के ऊपर पाण्डुक वन है । इस प्रकार वह पर्वत चार नन्दन वनों से युक्त विचित्र क्रीड़ा का स्थान है । महेन्द्र लोग देवगण इन्द्रादि के साथ आकर स्वर्ग से भी अधिक रमणीय गुणों से युक्त होने के कारण उस पर्वत पर आनन्द अनुभव करते हैं ॥११॥ से पव्वए सद्दमहप्पगासे, विरायती कंचणमट्ठवन्ने । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे, गिरीवरे से जलिए व भोमे ॥१२॥ छाया - स पर्वतः शब्दमहाप्रकाशो, विराजते काशनमृष्टवर्णः । अनुत्तरो गिरिषु च पर्वदुर्गा, गिरिवरोऽसो ज्वलित इव भीमः ॥ अन्वयार्थ - (से पव्वए) वह पर्वत (सद्दमहप्पगासे) अनेक नामों से अति प्रसिद्ध है (कंचणमट्ठवन्ने) तथा वह सोने की तरह शुद्ध वर्णवाला (विरायती) सुशोभित है (अणुत्तरे) वह सब पर्वतों में श्रेष्ठ है (गिरिसुयपव्वदुग्गे) वह सभी पर्वतों में उपपर्वतो के द्वारा दुर्गम है (से गिरिवरे) वह पर्वतश्रेष्ठ (भोमे व जलिए) मणि और औषधियों से प्रकाशित भूप्रदेश की तरह प्रकाश करता है। भावार्थ- वह सुमेरु पर्वत जगत् में अनेक नामों से प्रसिद्ध है। उसका रङ्ग सोने के समान शद्ध है, उससे बढ़कर जगत में दूसरा पर्वत नहीं है, वह उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है, वह मणि तथा औषधियों से प्रकाशित भूमि प्रदेश की तरह प्रकाश करता है। टीका - सः- मेर्वाख्योऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरिरित्येवमादिभिः शब्दैर्महान् प्रकाश:प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाशो 'विराजते' शोभते, काञ्चनस्येव 'मृष्ट' श्लक्ष्णः शुद्धो वा वर्णो यस्य स तथा, एवं न विद्यते उत्तरः- प्रधानो यस्यासावनुत्तरः, तथा गिरिषु च मध्ये पर्वभिः- मेखलादिभिदंष्ट्रापर्वतैर्वा 'दुर्गो' विषमः सामान्यजन्तुनां दुरारोहो 'गिरिवरः' पर्वतप्रधानः, तथाऽसौ मणिभिरौषधिभिश्च देदीप्यमानतया 'भौम इव' भूदेश इव ज्वलित इति ॥१२॥ किञ्च टीकार्थ - वह सुमेरु पर्वत, मन्दर, मेरु, सुदर्शन और सुरगिरि आदि अनेक शब्दों से जगत् में प्रसिद्ध है। उसका वर्ण सोने की तरह चिक्कण अथवा शुद्ध है। उस पर्वत से बढ़कर दूसरा पर्वत जगत् में नहीं है। वह मेखला आदि से अथवा उपपर्वतों के कारण सभी पर्वतों में दुर्गम है, उस पर्वत पर सामान्य जन्तुओं का चढ़ना बड़ा कठिन है । वह पर्वतश्रेष्ठ मणि और औषधियों से प्रकाशित होने के कारण पृथ्वी देश की तरह प्रकाश करता है ॥१२॥ ३४८
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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