________________
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १०-११ श्री वीरस्तुत्यधिकारः प्रभावादिभिर्गुणैरुपेतो 'विराजते' शोभते, एवं भगवानप्यनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति, यदिवा- यथा त्रिदशालयो मुदाकरो ऽनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति एवमसावपि मेरुरिति ॥ ९ ॥
टीकार्थ - वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से औरस (छाती के) बल तथा धृति और संहनन आदि बलों से भगवान् परिपूर्ण हैं । तथा जम्बूद्वीप का नाभित्वरूप सुमेरु पर्वत जैसे समस्त पर्वतों में श्रेष्ठ है, इसी तरह भगवान् वीर्य तथा अन्यगुणों में सबसे श्रेष्ठ । जैसे अपने ऊपर निवास करनेवाले देवताओं को हर्ष उत्पन्न करनेवाला स्वर्ग, प्रशस्त वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और प्रभाव आदि गुणों से सुशोभित इसी तरह भगवान् भी अनेक गुणों से सुशोभित हैं । अथवा जैसे स्वर्ग, सुख देनेवाला है और अनेक गुणों से सुशोभित है इसी तरह वह सुमेरु भी है ॥ ९ ॥
पुनरपि दृष्टान्तभूतमेरुवर्णनायाह
फिर भी दृष्टान्तभूत सुमेरु पर्वत का वर्णन शास्त्रकार करते हैंसयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते ।
से जोयणे णवणवते सहस्से, उद्धस्सितो हे सहस्समेगं
छाया - शतं सहस्राणान्तु योजनानां, त्रिकण्डकः पण्डकवैजयन्तः । स योजने नवनवतिसहस्राणि, ऊर्ध्वमुच्छ्रितोऽधः सहस्रमेकम् ॥
अन्वयार्थ - ( सहस्साण जोयणाणं सयं उ ) वह सुमेरु पर्वत सौ हजार योजन ऊंचा है (तिकंडगे) उसके विभाग तीन है (पंडगवेजयंते ) उस पर्वत पर सब से ऊपर स्थित पाण्डुक वन पताका की तरह शोभा पाता है (से) वह सुमेरु पर्वत (जोयणे णवणवति सहस्से उद्धुस्सितो ) निनानवे हजार योजन ऊपर उठा है (हेट्ठ सहस्समेगं ) तथा एक हजार योजन भूमि में गड़ा है।
भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत सौ हजार योजन का । उसके विभाग तीन हैं तथा उस पर सबसे ऊँचा स्थित पाण्डुक वन पताका के समान शोभा पाता है। वह निनानवे हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन भूमि में गड़ा है ।
118011
टीका - स मेरुर्योजनसहस्राणां शतमुच्चैस्त्वेन, तथा त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डः, तद्यथा - भौमं जाम्बूनदं वैडूर्यमिति, पुनरप्यसावेव विशेष्यते- 'पण्डकवैजयन्त' इति, पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्तीकल्पं - पताकाभूतं यस्य स तथा, तथाऽसावूर्ध्वमुच्छ्रितो नवनवतिर्योजनसहस्राण्यधोऽपि सहस्रमेकमवगाढ इति ॥ १०॥ तथा
-
टीकार्थ वह सुमेरु पर्वत सौ हजार योजन ऊँचा है तथा उसके विभाग तीन हैं, जैसे कि- भूमिमय, सुवर्णमय और वैडूर्य्यमय । फिर सुमेरु का विशेषण बतलाते हैं- उस सुमेरु पर्वत से शिर पर स्थित पाण्डुक वन उसकी पताका के समान शोभा पाता है । वह पर्वत निनानवे हजार योजन ऊपर उठा है तथा एक हजार योजन नीचे गड़ा है ||१०||
पुट्ठेभे चिट्ठ भूमिवट्ठिए, जं सूरिया अणुपरिवट्टयंति । से हेमवन्ने बहुनंदणे य, जंसी रतिं वेदयंती महिंदा
छाया - स्पृष्टो नभस्तिष्ठति भूमिवर्ती, यं सूर्या अनुपरिवर्तयन्ति स हेमवर्णो बहुनन्दनश्च यस्मिन् रतिं वेदयन्ति महेन्द्राः ।
।।११।।
अन्वयार्थ - (से) वह सुमेरु पर्वत ( णभे पुट्ठे ) आकाश को स्पर्श किया हुआ (भूमिवट्ठिए चिट्ठइ) पृथिवीपर स्थित है (जं) जिसकी (सूरिया) आदित्य लोग (अणुपरिवट्टयंति) परिक्रमा देते हैं (हेमवत्रे) वह सोनहरी रजवाला (बहुनंदणे य) और बहुत नन्दन वनों से युक्त है, (जंसी) जिस पर (महिंदा ) महेन्द्र लोग ( रतिं वेदयंती ) आनन्द अनुभव करते हैं ।
भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता हुआ और पृथिवी में घुसा हुआ स्थित है । आदित्य गण
३४७