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________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा ९ श्री वीरस्तुत्यधिकारः है । जैसे स्वयम्भूरमण का जल निर्मल है, इसी तरह भगवान् की प्रज्ञा निर्मल है । भगवान् कषायों से रहित तथा मुक्त हैं । भगवान् इन्द्र के समान देवताओं के अधिपति तथा बड़े तेजस्वी हैं । टीका - असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तथा 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्र भावैरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद्, एकदेशेन त्वाह- यथा 'सागर' इति, अस्य चाविशिष्टत्वात् विशेषणमाह- 'महोदधिरिव' स्वयम्भूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गम्भीरजलोऽक्षोभ्यश्च, एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमणानन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च, यथा च असौ सागरः 'अनाविलः' अकलुषजलः, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति, तथाकषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी, न कषायी अकषायी, तथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः, भिक्षुरिति क्वचित्पाठः, तस्यायमर्थः - सत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोकपूज्यत्वे च तथापि भिक्षामात्रजीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहान - सादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः 'द्युतिमान् ' दीप्तिमानिति ॥८॥ किञ्च - टीकार्थ जिसके द्वारा पदार्थों को जानते हैं, उसे 'प्रज्ञा' कहते हैं । वे भगवान् महावीर स्वामी प्रज्ञा के द्वारा अक्षय हैं । जो पदार्थ जानने योग्य है, उसमें भगवान् की बुद्धि क्षय को नहीं प्राप्त होती है तथा वह किसी के द्वारा रोकी भी नहीं जा सकती । भगवान् की बुद्धि का नाम केवलज्ञान है । वह केवल ज्ञान, काल से आदि सहित और अन्तरहित है तथा द्रव्य, क्षेत्र और भाव से भी अनन्त है । सम्पूर्ण तुल्यता का दृष्टान्त नहीं मिलता. है, इसलिए शास्त्रकार एक देश से दृष्टान्त बताते हैं- जैसे समुद्र अक्षय जलवाला है, इसी तरह भगवान् अक्षय ज्ञानवाले हैं। समुद्र शब्द सामान्य समुद्र का वाचक है, इसलिए उसका विशेषण बताते हैं- जैसे स्वयम्भूरमण समुद्र अपार, विस्तृत, गम्भीर जलवाला और क्षोभ करने के अयोग्य है, इसी तरह भगवान् की प्रज्ञा भी विस्तृत तथा उस समुद्र से भी अनन्त गुण गम्भीर और क्षोभ करने के अयोग्य है । जैसे स्वयम्भूरमण का जल निर्मल है, इसी तरह भगवान् का ज्ञान भी कर्म का लेश न होने के कारण निर्मल है। जिसमें कषाय होते हैं, उसे कषायी कहते हैं परन्तु भगवान् कषाय रहित थे, इसलिए वे अकषायी थे । भगवान् के ज्ञानावरणीय आदि कर्मबन्धन नष्ट हो चुके थे, इसलिए वे मुक्त थे, कहीं ' भिक्खू' यह पाठ पाया जाता है । उसका अर्थ यह है कि- यद्यपि भगवान् के सब अन्तराय नष्ट हो गये थे तथा वह समस्त जगत् के पूज्य भी थे तथापि भिक्षावृत्ति से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे, वे अक्षीणमहानसादि लब्धि का उपयोग नहीं करते थे, तथा भगवान् इन्द्र की तरह देवताओं के अधिपति और तेजस्वी थे ॥८॥ I 'से' वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्वसेट्ठे । सुराल 2 वासिमुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए छाया - स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्य्यः सुदर्शन हव नगसर्वश्रेष्ठः । सुरालयो वासिमुदाकरः स विराजतेऽनेकगुणोपपेतः ॥ 11811 अन्वयार्थ - (से) वे भगवान् महावीर स्वामी ( वीरिएणं) वीर्य्य से (पडिपुन्नवीरिए) पूर्णवीर्य्य (सुदंसणे वा णगसव्वसेट्ठे) तथा सब पर्वतों में सुमेरु के समान सबसे श्रेष्ठ हैं (वासिमुदागरे सुरालए) निवास करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करनेवाला स्वर्ग के समान (से) वे (णेगगुणोववेए विरायए) अनेक गुणों से विराजमान हैं । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी पूर्णवीर्य्य और पर्वतों में सुमेरु के समान सब प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। वे देवताओं को हर्ष उत्पन्न करनेवाले स्वर्ग की तरह सब गुणों से सुशोभित हैं । टीका 'स' भगवान् 'वीर्येण' औरसेन बलेन धृतिसंहननादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा 'सुदर्शनो' मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः स यथा नगानां - पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः - प्रधानः तथा भगव वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति, तथा यथा 'सुरालय:' स्वर्गस्तन्निवासिनां 'मुदाकरो' हर्षजनकः प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्श1. स्थित्यपेक्षया ज्ञेयापेक्षया तु द्रव्यादिवदनाद्यनन्तकालगोचरैव । 2. वादि० प्र० । ३४६
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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