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________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा ७-८ श्री वीरस्तुत्यधिकारः था, अथवा भगवान् समस्त लोक के प्रति पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रकाश करते थे, इसलिए वे अनन्तचक्षु थे । जैसे सूर्य्य सबसे ज्यादा तपता है, उससे अधिक कोई नहीं तपता है, इसी तरह भगवान् भी ज्ञान में सब से उत्तम थे । जैसे प्रज्वलित होने के कारण इन्द्र स्वरूप अग्नि अन्धकार को निवृत्त कर प्रकाश फैलाती है, इसी तरह भगवान् भी अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करके पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे ॥६॥ अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुन्ने । इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता दिवि णं विसिट्ठे छाया - अनुत्तरं धर्ममिमं जिनानां, नेता मुनिः काश्यप आशुप्रज्ञः । इन्द्र हव देवानां महानुभावः सहस्रनेता दिवि विशिष्टः ॥ अन्वयार्थ - (आसुपन्ने) शीघ्रबुद्धिवाले (कासव) काश्यपगोत्री (मुणी) मुनि श्री वर्धमान स्वामी ( जिणाणं) ऋषभ आदि जिनवरों के (इणं) इस ( अणुत्तरं ) सब से प्रधान (धम्मं धर्म के (या) नेता हैं (दिवि) जैसे स्वर्ग लोक में (सहस्सदेवाण) हजारों देवताओं का (इंदेव) इन्द्र नेता ( महाणुभावे विसिट्ठे) और अधिक प्रभावशाली हैं, इसी तरह भगवान् सब जगत् में सर्व श्रेष्ठ प्रभावशाली हैं । भावार्थ - शीघ्र बुद्धिवाले काश्यपगोत्री मुनि श्री वर्धमान स्वामी ऋषभादि जिनवरों के उत्तम धर्म के नेता हैं । जैसे स्वर्गलोक में सब देवताओं में इन्द्र श्रेष्ठ हैं, इसी तरह भगवान् इस सर्व जगत् में सब से श्रेष्ठ हैं । टीका नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमिममनुत्तरं धर्मं 'जिनानाम्' ऋषभादितीर्थकृतां सम्बन्धिनमयं 'मुनिः ' श्रीमान् वर्धमानाख्यः 'काश्यपः' गोत्रेण 'आशुप्रज्ञः ' केवलज्ञानी उत्पन्नदिव्यज्ञानो 'नेता' प्रणेतेति, ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे 'न लोकाव्ययनिष्ठे' (पा० २-३-६९) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयैव, यथा चेन्द्रो 'दिवि' स्वर्गे देवसहस्राणां ‘महानुभावो' महाप्रभाववान् 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तथा 'नेता' प्रणायको 'विशिष्टो रूपबलवर्णादिभिः प्रधानः एवं भगवानपि सर्वेभ्यो विशिष्टः प्रणायको महानुभावश्चेति ॥७॥ अपि च - ॥७॥ कार्थ जिससे ज्यादा कोई धर्म नहीं है, उस सर्वोत्तम ऋषभादि तीर्थङ्करसम्बन्धी धर्म के, केवलज्ञानी काश्यपगोत्री श्रीमान् वर्धमान स्वामी नेता हैं । यहाँ 'नेता' शब्द में ताच्छील्यार्थक तृन् प्रत्यय हुआ है, इसलिए उसके योग में "न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्" इत्यादि सूत्र के द्वारा षष्ठी के प्रतिषेध होने से 'धर्मम्' इस पद में कर्मणि द्वितीया ही हुई । जैसे स्वर्गलोक में इन्द्र हजारों देवताओं में महाप्रभावशाली हैं ('णं' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है) तथा सबके नेता हैं एवं रूप, बल और वर्ण आदि में सबसे प्रधान हैं, इसी तरह भगवान् भी सबसे विशिष्ठ, सबके नायक और सबसे अधिक प्रभावशाली हैं ||७|| - - से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वावि अनंतपारे । अणाइले 'वा अकसाइ मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं छाया स प्रज्ञयाऽक्षयः सागर इव, महोदधिरिवानन्तपारः । अनाविलो वा अकसायिमुक्तः शक्र इव देवाधिपतिर्द्युतिमान् ॥ अन्वयार्थ - (से) वे भगवान् महावीर स्वामी (सागरे वा ) समुद्र के समान (पन्नया) प्रज्ञा से (अक्खय) अक्षय हैं (महोदही वावि अनंतपारे) अथवा वह स्वयम्भूरमण समुद्र के समान अपार प्रज्ञावाले हैं (अणाइले) जैसे उस समुद्र का जल निर्मल है, उसी तरह भगवान् की प्रज्ञा निर्मल हैं (अकसाइ मुक्के) भगवान् कषायों से रहित और मुक्त हैं (सक्केव ) भगवान्, इन्द्र की तरह ( देवाहिवई) देवताओं के अधिपति हैं (जुईमं) तथा तेजस्वी हैं । भावार्थ - भगवान् समुद्र के समान अक्षय प्रज्ञावाले हैं। उनकी प्रज्ञा का स्वयम्भूरमण समुद्र के समान पार नहीं 1. भिक्खू । ||८|| ३४५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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