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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा ६
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः युक्त थे । यहाँ भगवान् को केवलज्ञानी कहकर शास्त्रकार दूसरे धर्मवालों के प्रणेता से महावीर स्वामी की विशिष्टता बतलाते हैं । ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है इसलिए शास्त्रकार पहले भगवान् का ज्ञान दिखाकर अब उनकी क्रिया दिखाने के लिए कहते हैं- जिससे विशुद्धकोटि और अविशुद्ध कोटिरूप दोनों प्रकार के गन्ध-दोष-हट गये हैं, उसे निरामगन्ध कहते हैं, भगवान् निरामगन्ध थे अर्थात् उन्होंने मूल और उत्तरगुणों से शुद्ध चारित्र क्रिया का पालन किया था तथा असह्य परीषह और उपसों की पीड़ा प्राप्त होने पर भी कम्प रहित होकर चारित्र में वे दृढ़ थे । एवं समस्त कर्मों के हट जाने से भगवान् आत्मस्वरूप में स्थित थे । आत्मस्वरूप में स्थित होना ज्ञान और क्रिया के फलद्वारा भगवान् का विशेषण है । समस्त जगत् में भगवान् से बढ़कर कोई विद्वान् नहीं था, वह हस्तामलक यानी हाथ में स्थित आँवले की तरह जगत् के समस्त पदार्थों को जाननेवाले थे । तथा भगवान् सचित्तादिरूप बाह्यग्रन्थ और कर्मरूप आभ्यन्तर ग्रन्थ से हटे हुए निर्ग्रन्थ थे । भगवान् को सात प्रकार के भय नहीं थे, इसलिए वे समस्त भयों से रहित थे । भगवान् को (वर्तमान आयु से भिन्न) चारों प्रकार की आयु नहीं थी क्योंकि कर्मरूपी बीज के जल जाने से फिर उनकी उत्पत्ति असंभव है ।।५।।
से भूइपण्णे अणिएअचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वइरोयर्णिदे व तमं पगासे
॥६॥ छाया - स भूतिप्रज्ञोऽनियताचारी, ओघन्तरो धीर अनन्तचक्षुः ।
अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति ।। अन्वयार्थ - (से) वह भगवान् महावीर स्वामी, (भूइपण्णे) अनन्तज्ञानी (अणिए अचारी) और अनियताचारी अर्थात् इच्छानुसार विचरनेवाले (ओहंतरे) संसार सागर को पार करनेवाले (धीरे) बड़े बुद्धिमान (अणंतचक्ख) केवलज्ञानी (सरिए वा) जैसे ज्यादा (तप्पति) तपता है, इसी तरह भगवान् सबसे ज्यादा ज्ञानी थे (वइरोयणिंदे व तमं पगासे) जैसे अग्नि अन्धकार को दूर करके प्रकाश करती है, इसी तरह भगवान् अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करके पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे।
भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी अनन्तज्ञानी इच्छानुसार विचरनेवाले, संसार सागर को पार करनेवाले, परीषह और उपसर्गों को सहन करनेवाले केवलज्ञानी थे । जैसे सबसे ज्यादा सूर्य तपता है, इसी तरह भगवान सबसे ज्यादा ज्ञानवंत थे, अग्नि अन्धकार को दूर करके प्रकाश करती है, इसी तरह भगवान् अज्ञान को दूर कर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे।
टीका - भूतशब्दो वृद्धौ मङ्गले रक्षायां च वर्तते, तत्र 'भूतिप्रज्ञः' प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, तथाभूतिप्रज्ञो 'जगद्रक्षाभूतप्रज्ञः एवं सर्वमङ्गलभूतप्रज्ञ इति, तथा 'अनियतम्' अप्रतिबद्धं परिग्रहायोगाच्चरितुं शीलमस्यासावनियतचारी तथौघं- संसारसमुद्रं तरितुं शीलमस्य स तथा, तथा धी:- बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा धीरः, तथा अनन्तं- ज्ञेयानन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षुः- केवलज्ञानं यस्यानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशकतया चक्षुर्भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः, तथा यथा- सूर्यः 'अनुत्तरं' सर्वाधिकं तपति न तस्मादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति, एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तम इति, तथा 'वैरोचनः' अग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रो यथाऽसौ तमोऽपनीय प्रकाशयति, एवमसावपि भगवानज्ञानतमोऽपनीय यथावस्थितपदार्थप्रकाशनं करोति ॥६॥ किञ्च
टीकार्थ - भूति शब्द का वृद्धि मङ्गल और रक्षा अर्थों में प्रयोग होता है । भगवान् महावीर स्वामी भूतिप्रज्ञ थे, अर्थात् वे बढ़े हुए ज्ञानवाले यानी अनन्तज्ञानी थे । तथा वे जगत् की रक्षा करनेवाली प्रज्ञा से युक्त थे, एवं वे सबके मङ्गल रूप प्रज्ञावाले थे । तथा भगवान् अनियताचारी थे अर्थात् उनकी गति का कोई प्रतिबन्ध (रोक) न होने के कारण वे अनियत स्थान पर विचरनेवाले थे । भगवान् संसार रूपी ओघ को पार करनेवाले थे और वे बुद्धि से सुशोभित थे अथवा वे परीषह और उपसर्गों से नहीं डिगाये जाने योग्य धीर थे । भगवान् अनन्तचक्षु थे अर्थात् ज्ञेय पदार्थों की अनन्तता के कारण अथवा ज्ञान की नित्यता के कारण केवलज्ञान उनका नेत्र के समान 1. ०भूति० प्र० । 2. या प्र० ।
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