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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा ५
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः टीकार्थ - ऊपर नीचे और तिरिच्छा चौदह रज्जु स्वरूप इस लोक में, रहनेवाले जो तेजो रूप और वायुरूप विकलेन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय भेदवाले तीन प्रकार के त्रस प्राणी हैं तथा पथिवी. जल और वनस्पति भेद से जो तीन प्रकार के स्थावर प्राणी हैं। इनके उच्छ्वास आदि प्राण होते हैं इसलिए वे प्राणी हैं । इस कथन के द्वारा शाक्य आदि मतों का खण्डन करके पृथवी आदि एकेन्द्रियों को भी जीव कहा है। इन प्राणियों को वह भगवान् केवलज्ञानी होने के कारण जानते हैं, अत एव भगवान् प्रज्ञ है । जो प्रज्ञ है, उसी को प्राज्ञ कहते हैं । भगवान् केवलज्ञान के द्वारा द्रव्यार्थ और पर्यायार्थ का आश्रय लेकर समस्त पदार्थों को जानकर समझाने योग्य प्राणियों के प्रति धर्म
न किया है, यह उत्तर ग्रन्थ के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए । तथा वह भगवान् प्राणियों को पदार्थ का स्वरूप प्रकट करने से दीपक के समान हैं, इसलिए वह दीपक हैं । अथवा भगवान् संसारसागर में पड़े हुए प्राणियों को सदुपदेश देने से उनके विश्राम का कारण होने से द्वीप के समान हैं, इसलिए वह द्वीप हैं । ऐसे भगवान् ने संसार से पार करने में समर्थ श्रुत और चारित्र धर्म को कहा है। भगवान् ने उक्त धर्म को उत्तम अनुष्ठान युक्त होकर अथवा रागद्वेष रहित होकर अथवा समभाव के साथ कहा है । अत एव कहा है कि (जहाँ) जैसे धनवान् को धर्म का उपदेश करे इसी तरह दरिद्र को भी । भगवान् ने प्राणियों पर कृपा करके उक्त धर्म का कथन किया है, पूजा सत्कार के लिए नहीं ॥४॥
से सव्वदंसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे धिइमं ठितप्पा । अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्ज, गंथा अतीते अभए अणाऊ
॥५॥ छाया - स सर्वदर्शी अभिभूयज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमांस्थितामा।
अनुत्तरः सर्वजगत्सु विद्वान् ग्रन्थादतीतोऽभयोऽनायुः ॥ अन्वयार्थ - (से) वे महावीर स्वामी (सव्वदंसी) समस्त पदार्थों को देखनेवाले (अभिभूयनाणी) केवलज्ञानी (णिरामगंधे) मूल और उत्तरगुण से विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले (धिइम) धृति युक्त (ठितप्पा) और आत्मस्वरूप में स्थित थे (सव्वजगंसि) सम्पूर्ण जगत् में वह (अणुत्तरे विज्ज) सबसे उत्तम विद्वान थे (गंथा अतीते अभए अणाऊ) तथा बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की ग्रन्थियों से रहित निर्भय और आयु रहित
थे।
भावार्थ- भगवान् महावीर स्वामी समस्त पदार्थों को देखनेवाले केवलज्ञानी थे। वह मूल और उत्तर गुणों से विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले बड़े धीर और आत्मस्वरूप में स्थित थे । भगवान् समस्त जगत में सर्वोत्तम विद्वान और बाह्य तथा आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित निर्भय एवं आयुरहित थे।
टीका - 'स' भगवान् सर्व- जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टुं शीलमस्य स सर्वदर्शी, तथा अभिभूय' पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि यद्वर्तते ज्ञानं केवलाख्यं तेन ज्ञानेन ज्ञानी, अनेन चापरतीर्थाधिपाधिकत्वमावेदितं भवति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति कृत्वा तस्य भगवतो ज्ञानं प्रदर्श्य क्रियां दर्शयितुमाह- निर्गतः- अपगत आमःअविशोधिकोटयाख्यः तथा गन्धो-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मलोत्तरगणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः, तथाऽसह्यपरीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपि निष्प्रकम्पतया चारित्रे धृतिमान्, तथा स्थितो-व्यवस्थितोऽशेषकर्मविगमादात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा, एतच्च ज्ञानक्रिययोः फलद्वारेण विशेषणं, तथा- 'नास्योत्तरंप्रधानं सर्वस्मिन्नपि जगति विद्यते (यः) स तथा, विद्वानिति सकलपदार्थानां करतलामलकन्यायेन वेत्ता, तथा बाह्यग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराच्च कर्मरूपाद् 'अतीतो' अतिक्रान्तो ग्रन्थातीतो- निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावभयः समस्तभयरहित इत्यर्थः, तथा न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यनायुः, दग्धकर्मबीजत्वेन पुनरुत्पत्तेरसंभवादिति ।।५।। अपि च
___टीकार्थ - वे भगवान् महावीर स्वामी सर्वदर्शी हैं अर्थात् स्वभाव से ही चराचर जगत् को सामान्य रूप से देखनेवाले थे। तथा मति आदि चार ज्ञानों का पराजय करके जो रहता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं, उससे भगवान् 1. तस्य परमानेडितमित्यादिवदवयववाचित्वेन षष्ठी ।
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