________________
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा ४
श्री वीरस्तुत्यधिकारः
फल स्वरूप दुःख को जानते थे, क्योंकि वे उनके दुःख को मिटाने में समर्थ उपदेश करते थे । अथवा भगवान् . क्षेत्रज्ञ थे क्योंकि वे आत्मा के यथार्थ स्वरूप जानने के कारण आत्मज्ञ थे । अथवा क्षेत्र नाम आकाश का है, उसे भगवान् जानते थे अर्थात् वे लोक और अलोक के स्वरूप को जानते थे। जो आठ प्रकार के कर्मरूपी भावकुशों का छेदन करता है, उसे कुशल कहते हैं । भगवान् प्राणियों के कर्म का छेदन करने में निपुण होने के कारण कुशल थे । जिसकी बुद्धि शीघ्र है उसे आशुप्रज्ञ कहते हैं । भगवान् आशुप्रज्ञ थे, क्योंकि वे सदा सर्वत्र उपयोग रखते थे, वे छद्मस्थ की तरह सोचकर नहीं जानते थे, यह भाव है। कही 'महर्षि:' यह पाठ मिलता है । भगवान् अत्यन्त उग्र तपस्या करने से तथा अतुल परीषह और उपसर्गों को सहन करने से महर्षि थे। जिनका विशेष ग्राहक ज्ञान नाश रहित है अथवा अनन्त पदार्थों का निश्चय करनेवाला है, उन्हें अनन्तज्ञानी कहते हैं, भगवान् अनन्तज्ञानी थे । एवं सामान्य अर्थ का निश्चय करने के कारण भगवान् अनन्तदर्शी थे । भगवान् का यश मनुष्य, देवता और असुरों से बढ़कर था, इसलिए वह यशस्वी थे तथा भवस्थ केवली अवस्था में वे जगत् के नेत्रमार्ग में स्थित थे, अथवा जगत् के सामने सूक्ष्म, और व्यवहित पदार्थों को प्रकट करने के कारण वे जगत् के नेत्र स्वरूप थे, ऐसे भगवान् के धर्म को यानि संसार से उद्धार करने के स्वभाव को अथवा उनके द्वारा कहे हुए श्रुत और चारित्र धर्म को तुम जानो । तथा उपसर्गों के द्वारा पीड़ित किये जाने पर भी कम्प रहित चारित्र से अविचल स्वभावरूप उनकी धृति यानी संयम में प्रीति को देखो, उसे कुशाग्र बुद्धि के द्वारा विचारो । अथवा उन्हीं श्रमण आदि ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा कि यशस्वी और जगत् के नेत्रपथ में स्थित भगवान् के धर्म और धीरता को आप जानते हैं, इसलिए आप हमें यह सब कहे ॥३॥
साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् कथयितुमाह
अब श्रीसुधर्मा स्वामी भगवान् महावीर स्वामी के गुणों का वर्णन आरम्भ करते हैं
उड्डुं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा ।
से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पन्ने, दीवे व धम्मं समियं उदाहु
छाया - ऊर्ध्वमथस्तिर्य्यग्दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणिः । स नित्यानित्याभ्यां प्रसमीक्ष्य प्रज्ञः, दीप हव धर्म समितमुदाह ॥
३४२
अन्वयार्थ - (उहूं) ऊपर (अहेयं) नीचे (तिरियं ) तिरछे (दिसासु) दिशाओ में (तसाय जे थावरा जे य पाणा) जो त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं, उन्हें (णिच्चणिच्चेहि ) नित्यं और अनित्य दोनों प्रकार का ( समिक्ख ) जानकर (से पन्ने) उस केवलज्ञानी भगवान ने (दीवे व समियं धर्म्म उदाहु) दीपक के समान् सम्यग् धर्म का कथन किया था ।
11811
भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने ऊपर, नीचे और तिच्छे रहनेवाले त्रस और स्थावर प्राणियों को नित्य तथा अनित्य दोनों प्रकार का जानकर दीपक के समान पदार्थ को प्रकाशित करनेवाले धर्म का कथन किया है । टीका ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु सर्वत्रैव चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके ये केचन त्रस्यन्तीति त्रसास्तेजोवायुरूपविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् त्रिधा, तथा ये च 'स्थावराः' पृथिव्यम्बुवनस्पतिभेदात् त्रिविधाः, एत उच्छवासादयः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिन इति, अनेन च शाक्यादिमतनिरासेन पृथिव्याद्येकेन्द्रियाणामपि जीवत्वमावेदितं भवति, स भगवांस्तान् प्राणिनः प्रकर्षेण केवलज्ञानित्वात् जानातीति प्रज्ञः [ग्रन्थाग्रम् ४२५० ] स एव प्राज्ञो नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् 'समीक्ष्य' केवलज्ञानेनार्थान् परिज्ञाय प्रज्ञापनायोग्यानाहेत्युत्तरेण सम्बन्ध:, तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः यदिवा - संसारार्णवपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वासहेतुत्वात् द्वीप इव द्वीप:, स एवम्भूतः संसारोत्तारणसमर्थं 'धर्मं श्रुतचारित्राख्यं सम्यग् इतं गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितत्वेन समतया वा, तथा चोक्तम्- "जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ" इत्यादि, समं वा-धर्मम् उत्- प्राबल्येन आह- उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थं न पूजासत्कारार्थमिति ॥४॥ किञ्चान्यत्
-