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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २ श्रीवीरस्तुत्यधिकारः यदुक्तं प्रागिति, एतच्च यदुत्तरत्र प्रश्नप्रतिवचनं वक्ष्यते तच्च बुद्ध्येतेति, अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या प्रतन्यते, सा चेयम्- अनन्तरोक्तां बहुविधां नरकविभक्ति श्रुत्वा संसारादुद्विग्नमनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् 'अप्राक्षुः' पृष्टवन्तः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यदिवा जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमेवाह'यथा केनैवंभूतो धर्मः संसारोत्तारणसमर्थः प्रतिपादित इत्येतद्बहवो मां पृष्टवन्तः, तद्यथा-'श्रमणा' निर्ग्रन्थादय: तथा 'ब्राह्मणा' ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठाननिरताः तथा 'अगारिणः' क्षत्रियादयो ये च शाक्यादयः परतीर्थिकास्ते सर्वेऽपि पृष्टवन्तः, किं तदिति दर्शयति- स को योऽसावेनं धर्म दुर्गतिप्रसृतजन्तुधारकमेकान्तहितम् 'आह' उक्तवान् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशम् अतुलमित्यर्थः, तथा- साध्वी चासौ समीक्षा च साधुसमीक्षा- यथावस्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिवासाधुसमीक्षया- समतयोक्तवानिति ॥१॥ टीकार्थ - इस सूत्र का अनन्तर सूत्र के साथ सम्बन्ध यह है- पूर्व सूत्र में कहा है कि तीर्थंकर के द्वारा बताये हुए मार्ग से संयम का पालन करते हुए बुद्धिमान् पुरुष को मृत्युकाल की प्रतीक्षा करनी चाहिए, अतः यहाँ जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि- वह तीर्थङ्कर कैसे हैं जिनने मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया है ? यह श्रम ने पूछा । परम्पर सूत्र के साथ सम्बन्ध यह है- प्रथम सूत्र में कहा है कि जीव को बोध प्राप्त करना चाहिए, सो आगे चलकर जो प्रश्न का उत्तर दिया जायगा, वह जानना चाहिए । इस सम्बन्ध से आये हुए इस सूत्र की संहिता आदि के क्रम से व्याख्या की जाती है, वह व्यारव्या यह है- पहले जो बहुत प्रकार की नरक विभक्ति बताई गई है, उसे सुनकर संसार से घबराये हुए पुरुषों ने श्रीसुधर्मा स्वामी से यह पूछा कि- "यह नरक विभक्ति किसने कही है" 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है अथवा जम्बूस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से कहते हैं कि- संसार से पार करने में समर्थ ऐसे धर्म को किसने कहा ? यह बहुत पुरुषों ने मेरे से पूछा है ? जैसे कि- श्रमण अर्थात् निर्ग्रन्थ आदि तथा ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि के अनुष्ठान में तत्पर रहनेवाले एवं अगारी अर्थात् क्षत्रिय आदि तथा शाक्य आदि परतीर्थी इन सब ने मेरे से पूछा है । क्या पूछा है ? सो दर्शाते हैं- वह पुरुष कौन है ? जिसने दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण करने में समर्थ एकान्त हित अनन्य सदृश अर्थात् अनुपम धर्म को पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को निश्चय कर के अथवा समभाव से कहा है ? ॥१॥ - तथा तस्यैव ज्ञानादिगुणावगतये प्रश्नमाह - उन्हीं भगवान् महावीर स्वामी के गुणों के ज्ञान के लिए प्रश्न करते हुए कहते है किकहं च णाणं कह दंसणं से, सीलं कहं नायसुतस्स आसी ?। जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुतं बूहि जहा णिसंतं ॥२॥ छाया - कथं च ज्ञानं कथं दर्शनं तस्य, शीलं कथं ज्ञातपुत्रस्य आसीत् नानासि भिक्षो | याथातथ्येन, यथाश्रुतं हि यथा निशान्तम् । अन्वयार्थ - (से नायपुत्तस्स) उस ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी का (णाणं) ज्ञान (कह) कैसा था (कह दसणं) तथा उनका दर्शन कैसा था (सीलं कहं आसी) तथा उनका शील यानी यम, नियम का आचरण कैसा था ? (भिक्खु) हे साधो ! (जहातहेणं जाणासि) तुम ठीक ठीक यह जानते हो इसलिए (अहासुतं) जैसा तुमने सुना है (जहा णिसंतं) और जैसा निश्चय किया है (बूहि) सो हमें बतलाओ ! भावार्थ- ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी के ज्ञान, दर्शन और चारित्र कैसे थे? हे भिक्षो ! आप यह जानते हैं, इसलिए जैसा आपने सुना, देखा या निश्चय किया है, सो हमें बताइए । टीका - 'कथं' केन प्रकारेण भगवान् ज्ञानमवाप्तवान् ?, किम्भूतं वा तस्य भगवतो ज्ञानं- विशेषावबोधकं?, किम्भूतं 'से' तस्य 'दर्शन' सामान्यार्थपरिच्छेदकं ? 'शीलं च' यमनियमरूपं कीदृक् ? ज्ञाता:- क्षत्रियास्तेषां 'पुत्रो' भगवान् वीरवर्धमानस्वामी तस्य 'आसीद्' अभूदिति, यदेतन्मया पृष्टं तत् 'भिक्षो'!' सुधर्मस्वामिन् याथातथ्येन त्वं 1. मेवमाह प्र०। 2. निर्ग्रन्थाः प्र०। ३४०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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