________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा १
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः विष आदि का मोहन' करने का सामर्थ्य है । क्षेत्रवीर वह है जो जिस क्षेत्र में अद्भुत कर्म करता है या वीर कहकर वर्णन किया जाता है । इसी तरह काल में भी जानना चाहिए । भाववीर वह है जिसकी आत्मा क्रोध, मान, माया, लोभ और परीषह आदि के द्वारा जीती नहीं गयी है।
कहा है कि- क्रोध, मान, माया, लोभ ओर पांच इन्द्रिय दुर्जय हैं इसलिए आत्मा को जीत लेने पर सब जीत लिये जाते हैं । जो पुरुष युद्ध में हजार हजार दुर्जय दुश्मनों को जीतता है, वह यदि एक आत्मा को जीत लेवे तो यह उसका भारी जय है। इस जगत् में एक जिनसिंह ही विकट चाल से भ्रमण करता है ? जिन्होंने अपनी लीला से कामरूप तीक्षण दाढ़वाले मदन (काम) को चीर डाला है ।।
इस प्रकार परीषह और अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्गों से नहीं जीते हुए तथा अद्भुत कर्म करने के कारण भगवान् महावीर स्वामी ही गुणों के कारण भाव से महावीर कहे जाते हैं । अथवा व्यतिरिक्त एकभविक आदि द्रव्य वीर हैं । क्षेत्र वीर वह है जो जिस क्षेत्र में रहता है अथवा जिस क्षेत्र में उसका वर्णन किया जाता है। काल से भी इसी तरह जानना चाहिए । भाव से वीर वह है जो नोआगम से वीर नाम-गोत्र कर्मों का अनुभव करता है, वह वीर वर्धमान स्वामी ही हैं ।।८।। अब नियुक्तिकार स्तव का निक्षेप करने के लिए कहते हैं
स्तव के नाम आदि चार निक्षेप होते हैं, इनमें नाम और स्थापना पूर्ववत् जानने चाहिए । द्रव्यस्तव ज्ञ शरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त वह है, जो कटक, केयूर, फूलमाला, और चन्दन आदि सचित्त और अचित्त द्रव्यों के द्वारा किया जाता है । भावस्तव वह है, जो विद्यमान गुणों का अर्थात् जिसमें जो गुण विद्यमान हैं, उसका कीर्तन कीया जाता है ॥८४॥ अब प्रथम सूत्र में स्पर्श करते हुए समस्त अध्ययन का सम्बन्ध बतानेवाली गाथा को नियुक्तिकार कहते हैजम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से श्रीमन्महावीर वर्धमान स्वामी के गुणों को पूछा अतः श्री सुधर्मा
श्रीमन्महावीर वर्धमान स्वामी ऐसे गुणों से युक्त थे' यह कहा तथा उस भगवान् महावीर स्वामी ने संसार का जय इस प्रकार बताया है, इसलिए आप लोग भी जैसे भगवान् ने संसार का विजय किया था, इसी तरह यत्न करें, यह श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्यों के प्रति कहा ॥८५।।
- साम्प्रतं निक्षेपानन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदंम्
- अब निक्षेप के पश्चात् सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह हैपुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतित्थिआ य । से केइ गंतहियं धम्ममाहु, अणेलिसंसाहु समिक्खयाए
॥१॥ छाया - अप्राक्षुः श्रमणाः ब्राह्मणाश्च, अगारिणो ये परतीर्थिकाच ।
स क एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदशं साधुसमीक्षया । अन्वयार्थ (समणा य माहणा) श्रमण और ब्राह्मण (अगारिणो) क्षत्रिय आदि (परतित्थिआ य) और परतिर्थी शाक्य आदि ने (पुच्छिस्सु) पूछा कि-(स केइ) वह कौन है ? जिसने (णेगंतहियं) एकान्त हित (अणेलिस) अनुपम (धम्म) धर्म (साहु समिक्खयाए) अच्छी तरह विचारकर (आहु) कहा है।
भावार्थ - श्रमण, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि तथा परतीर्थियों ने पूछा कि- एकान्तरूप से कल्याण करनेवाले अनुपम धर्म को जिसने सोच विचारकर कहा है, वह कौन है ? ।
टीका - अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः, तद्यथा- तीर्थकरोपदिष्टेन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युकालमुपेक्षतेत्युक्तं, तत्र किम्भूतोऽसौ तीर्थकृत् येनोपदिष्टो मार्ग इत्येतत् पृष्टवन्तः 'श्रमणा' यतय इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु बुद्ध्येत 1. रुचिकर (कोष ज्ञान सागर)
३३९