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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने प्रस्तावना
श्रीवीरस्तुत्यधिकारः लोकमलोके कन्दुकवत् प्रक्षेप्तुमलं तथा मन्दरं दण्डं कृत्वा रत्नप्रभां पृथिवीं छत्रवद्बिभृयात्, तथा चक्रवर्तिनोऽपि बलं दोसोला बत्तीसा', इत्यादि, तथा विषादीनां मोहनादिसामर्थ्यमिति, क्षेत्रवीरस्तु यो यस्मिन् क्षेत्रेऽद्भुतकर्मकारी वीरो वा यत्र व्यावर्ण्यते, एवं कालेऽप्यायोज्यं, भाववीरो यस्य क्रोधमानमायालोभैः परीषहादिभिश्चात्मा न जितः, तथा चोक्तम्
""कोहं माणं च मायं च, लोभं पंचेदियाणि या दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं ॥१॥ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जयं जिणे। एक्कं जिणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥२॥ तथाएक्को परिभमउ जए वियडं जिणकेसरी सलीलाए। कंदप्पदुट्ठदाढो मयणो विड्डारिओ जेणं ॥३॥"
तदेवं वर्धमानस्वाम्येव परीषहोपसर्गरनुकूलप्रतिकूलैरपराजितोऽद्भुतकर्मकारित्वेन गुणनिष्पन्नत्वात् भावतो महावीर इति भण्यते, यदिवा-द्रव्यवीरो व्यतिरिक्त एकभविकादिः, क्षेत्रवीरो यत्र तिष्ठत्यसौ व्यावर्ण्यते वा, कालतोऽप्येवमेव, भाववीरो नोआगमतो वीरनामगोत्राणि कर्माण्यनुभवन्, स च वीरवर्धमानस्वाम्येवेति ॥८३।। स्तवनिक्षेपार्थमाहथुइणिक्खेवो चउहा आगंतुअभूसणेहिं दव्यथुती । भावे संताण गुणाण कित्तणा जे जहिं भणिया ॥८४॥ नि०
___ 'स्तुतेः स्तवस्य नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यस्तवस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो यः कटककेयूरस्रक्चन्दनादिभिः सचित्ताचित्तद्रव्यैः क्रियत इति, भावस्तवस्तु 'सद्भूतानां' विद्यमानानां गुणानां ये यत्र भवन्ति तत्कीर्तनमिति ।।८।।
साम्प्रतं आद्यसूत्रसंस्पर्शद्वारेण सकलाध्ययनसम्बन्धप्रतिपादिकां गाथां नियुक्तिकृदाहपुच्छिसु जंबुणामो अज्ज सुहम्मा तओ कहेसी य । एव महप्या वीरो जयमाह तहा जएज्जाहि ॥५॥ नि।
जम्बूस्वामी आर्यसुधर्मस्वामिनं श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिगुणान् पृष्टवान्, अतोऽसावपि भगवान् सुधर्मस्वाम्येवंगुणविशिष्टो महावीर इति कथितवान्, एवं चासौ भगवान् संसारस्य 'जयम्' अभिभवमाह, ततो यूयमपि यथा भगवान् संसारं जितवान् तथैव यत्नं विधत्तेति ।।८५।।
टीकार्थ - 'महावीरस्तव' शब्द में प्रधानार्थक महत् शब्द का ग्रहण है । वह प्रधानता, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से छ: प्रकार की होती है। नाम और स्थापना सरल हैं, इसलिए उन्हें छोड़कर द्रव्यप्रधानता बताई जाती है- द्रव्यप्रधानता, ज्ञशरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त सचित्त, अचित्त और मिश्रभेद से तीन प्रकार की होती है । सचित्त भी द्विपद, चतुष्पद और अपद भेद से तीन ही प्रकार का है । द्विपदों में तीर्थंकर और चक्रवर्ती आदि प्रधान हैं तथा चतुष्पदों में हाथी और घोड़ा आदि एवं अपदों में कल्पवृक्ष आदि प्रधान हैं, अथवा इसी लोक में जो रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श से उत्कृष्ट हैं, ऐसे प्रत्यक्ष पुण्डरीक (कमल) आदि पदार्थ अपदों में प्रधान है। अचित्त पदार्थों में नाना प्रकार के प्रभाववाले वैडुर्य आदि मणि प्रधान हैं । मिश्रों में विभूषित तीर्थंकर प्रधान हैं। क्षेत्र से प्रधान सिद्धक्षेत्र है तथा धर्माचरण के आश्रय से प्रधान महाविदेह क्षेत्र है एवं उपभोग के आश्रय से प्रधान देवकुरू आदि क्षेत्र हैं । काल से प्रधान एकान्त सुषमादि काल है अथवा जो काल धर्माचरण के लिए उपयुक्त है, वह काल से प्रधान है । भावों में प्रधान क्षायिकभाव है अथवा तीर्थंकर के शरीर की अपेक्षा से औदयिक भाव प्रधान है । इनमें यहां दोनों का ही अधिकार है।
वीर शब्द का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावभेद से चार प्रकार का निक्षेप है। इनमें, ज्ञशरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यवीर वह है, जो द्रव्य के लिए युद्ध आदि में अद्भुतकर्म करनेवाला शूर है । अथवा जो कोई वीर्यवान् द्रव्य है, वह द्रव्यशरीर में अन्तर्भूत होता है, जैसे कि- तीर्थङ्कर अनन्त बल और वीर्य से युक्त हैं । वह लोक को गेंद के समान अलोक में फेंक सकते हैं तथा मन्दर पर्वत को दण्ड बनाकर उस पर रत्नप्रभा पृथिवी को छत्र के समान धारण कर सकते हैं तथा चक्रवर्ती का बल भी "दोसोला बत्तीसा" इत्यादि कहा है ? तथा 1. क्रोधो मानश्च माया च लोभश्च पञ्चेन्द्रियाणि च दुर्जयं चैवात्मनः सर्वमात्मनि जिते जितं ॥१॥ यः सहस्रं सहस्राणां सङ्ग्रामे दुर्जयं जयेत् । एक
जयेदात्मान एष तस्य परमो जयः ॥२।। एकः परिभ्राम्यतु जगति विकटं जिनकेसरी स्वलीलया । कन्दर्पदुष्टदंष्ट्रः मदनो विदारितो येन ।।३।।
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