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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने प्रस्तावना श्रीवीरस्तुत्यधिकारः अथ श्रीवीरस्तुत्याख्यं षष्ठमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ उक्तं पञ्चममध्ययनं, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अत्रानन्तराध्ययने नरकविभक्तिः प्रतिपादिता, सा च श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनाऽभिहितेत्यतस्तस्यैवानेन गणकीर्तनद्वारेण चरितं प्रतिपाद्यते, शास्तगुरुत्वेन शास्त्रस्य गरीयस्त्वमितिकत्वा. इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनयोगद्वाराणि. तत्राप्यपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो महावीरगुणगणोत्कीर्तनरूपः। निक्षेपस्तु द्विधा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नश्च, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु महावीरस्तवः, तत्र महच्छब्दस्य वीर इत्येतस्य च स्तवस्य च प्रत्येकं निक्षेपो विधेयः. तत्रापि 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इतिकृत्वा पूर्व महच्छब्दो निरूप्यते, तत्रास्त्ययं महच्छब्दो बहुत्वे, यथा-महाजन इति, अस्ति बृहत्त्वे, यथा- महाघोषः, अस्त्यत्यर्थे, यथा-महाभयमिति, अस्ति प्राधान्ये यथा- महापुरुष इति, तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत इत्येतनियुक्तिकारो दर्शयितुमाह अब श्रीवीर स्तुति नामक छट्ठा अध्ययन आरम्भ किया जाता है। पञ्चम अध्ययन कहा जा चुका अब छट्ठा आरम्भ किया जाता है। इसका सम्बन्ध यह है- पूर्व अध्ययन में नरकों का विभाग बताया गया है, वह विभाग श्रीमन्महावीर वर्धमान स्वामी ने कहा है इसलिए गुणकीर्तन के द्वारा इस अध्ययन में उन्हींका चरित्र बताया जाता है, क्योंकि शिक्षक के महत्त्व से ही शास्त्र का महत्त्व होता है । इस सम्बन्ध से आये हुए इस अध्ययन के उपक्रम आदि चार अनुयोग द्वार हैं, उनमें उपक्रम में श्रीमहावीर स्वामी का गुण कथनरूप अधिकार है । निक्षेप दो प्रकार का है- ओघनिष्पन्न और नामनिष्पन्न । ओघनिष्पन्न निक्षेप में यह सम्पूर्ण अध्ययन है और नामनिष्पन्न में "महावीरस्तव" यह नाम है । यहाँ महत्, वीर, और स्तव इन तीनों में प्रत्येक का निक्षेप करना चाहिए । उसमें भी जिस क्रम से शब्दों का कथन है, उसी क्रम से उनका विभाग भी बताना चाहिए । इसलिए पहले महत् शब्द का निरूपण किया जाता है। महत् शब्द बहुत्व अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे कि- महाजन शब्द में महत् शब्द बहुत्व अर्थ में प्रत्युक्त हुआ है । तथा बृहत्व यानी बड़ा अर्थ में भी महत् शब्द का प्रयोग होता है, जैसे किमहाघोष शब्द में बड़ा अर्थ में महत् शब्द का प्रयोग हुआ है । एवं अत्यन्त अर्थ में महत् शब्द का प्रयोग होता है जैसे कि- महाभयम् में । यहाँ अत्यन्त अर्थ में महत् शब्द प्रयुक्त हुआ है । तथा प्राधान्य अर्थ में महत शब्द का प्रयोग होता है जैसे कि- महापुरुष शब्द में प्रधान अर्थ में महत् शब्द का प्रयोग हुआ है। इनमें यहां प्रध महत् शब्द का ग्रहण है, यह दिखाने के लिए नियुक्तिकार कहते हैंपाहन्ने महसदो दव्ये खेत्ते य कालभावे य । वीरस्स उ णिक्नेयो चउक्कओ होड़ णायव्यो ॥३॥ नि टीका - तत्र महावीरस्तव इत्यत्र यो महच्छब्द स प्राधान्ये वर्तमानो गृहीतः, 'तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा प्राधान्यं, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यप्राधान्यं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् त्रिधैव, तत्र द्विपदेषु तीर्थकरचक्रवर्त्यादिकं चतुष्पदेषु हस्त्यश्वादिकमपदेषु प्रधानं कल्पवृक्षादिकं, यदिवा-इहैव ये प्रत्यक्षा रूपरसगन्धस्पर्शरुत्कृष्टाः पौण्डरीकादयः पदार्थाः, अचित्तेषु वैडूर्यादयो नानाप्रभावा मणयो मिश्रेषु तीर्थकरो विभूषित इति, क्षेत्रतः प्रधाना सिद्धिर्धर्मचरणाश्रयणान्महाविदेहं, चोपभोगाङ्गीकरणेन तु देवकुर्वादिकं क्षेत्रं, कालतः प्रधानं त्वेकान्तसुषमादि, यो वा कालविशेषो धर्माचरणप्रतिपत्तियोग्य इति, भावप्रधानं तु क्षायिको भावः तीर्थकरशरीरापेक्षयौदयिको वा, तोह द्वयेनाप्यधिकार इति। वीरस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्धा निक्षेपः, तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यवीरो द्रव्यार्थ सङ्ग्रामादावद्भुतकर्मकारितया शूरो यदिवा-यत्किञ्चित् वीर्यवद् द्रव्यं तत् द्रव्यवीरे अन्तर्भवति, तद्यथा-तीर्थकृदनन्तबलवीर्यो 1. पर्यायत्वात्तत्त्वतस्तस्यैवाभिधानं यथा भाषाभिधानं वाक्यशुद्धौ वाक्यनिक्षेपे । ३३७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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