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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा २४ नरकाधिकारः रहितं दुःखमेव यस्मिन्नरकादिके भवे स तथा तमेकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा' नरकभवोपादानभूतानि कर्माण्युपादायैकान्तदुःखिनस्तत्-पूर्वनिर्दिष्टं दुःखम्-असातवेदनीयरूपमनन्तम्-अनन्योपशमनीयमप्रतिकारं 'वेदयन्ति' अनुभवन्तीति ॥२३॥ टीकार्थ - प्राणियों ने पूर्वजन्म में जैसी स्थितिवाला तथा जैसा प्रभाववाला जो कर्म किया है, वह वैसा ही अर्थात् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिवाला एवं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट प्रभाववाला उसी तरह संसार में प्राणियों को प्राप्त होता है । भाव यह है कि- तीव्र, मन्द और मध्यम जैसे बन्ध के अध्यवसायों से जो कर्म बांधा गया है, वह तीव्र मन्द और मध्यम ही विपाक उत्पन्न करता हुआ उदय को प्राप्त होता है। जिस प्राणि ने सुख के लेश से भी रहित एकान्त रूप से जिसमें दुःख ही होता है, ऐसे नरक भव के कारण स्वरूप कर्मों का अनुष्ठान किया है, वे एकान्त दुःखी होकर पूर्वोक्त असाता वेदनीय रूप दुःख जो अनन्त और किसीसे भी शान्त करने योग्य नहीं तथा प्रतीकार रहित है, उसे भोगते हैं । ॥२३॥ - पुनरप्युपसंहारव्याजेनोपदेशमाह - - फिर भी शास्त्रकार इस उद्देशक की समाप्ति के व्याज से उपदेश देते हैंएताणि सोच्चा णरगाणि धीरे, न हिंसर किंचण सव्वलोए। एगंतदिट्टी अपरिग्गहे उ, बुज्झिज्ज लोयस्स वसं न गच्छे ॥२४॥ छाया - एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरो, न हिंस्यात्कशन सर्वलोके । ___एकान्तदृष्टिरपरिग्रहस्तु, बुध्येत लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥ अन्वयार्थ - (धीरे) विद्वान् पुरुष (एताणि णरगाणि) इन नरकों को (सोच्चा) सुनकर (सव्वलोए) सब लोक में (किंचण) किसी प्राणी की (न हिंसए) हिंसा न करे (एगंतदिट्ठी) किन्तु जीवादि तत्त्वों में अच्छी तरह विद्यास रखता हुआ (अपरिग्गहे उ) परिग्रह रहित होकर (लोयस्स बुज्झिज्ज) अशुभ कर्म करनेवाले और उनका फल भोगनेवाले जीवों को समझे अथवा कषायों को जाने (वसं न गच्छे) उनके वश में न जाय। भावार्थ - विद्वान् पुरुष इन नरकों को सुनकर सब लोक में किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। किन्तु जीवादि तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा रखता हुआ परिग्रह रहित होकर कषायों का स्वरूप जाने और कभी भी उनके वश में न हो। टीका - "एतान्' पूर्वोक्तानरकान् तास्थ्यात्तद्व्यपदेश इतिकृत्वा नरकदुःखविशेषान् 'श्रुत्वा' निशम्य धी:-- बुद्धिस्तया राजत इति धीरो--बुद्धिमान् प्राज्ञः, एतन्कुर्यादिति दर्शयति--सर्वस्मिन्नपि--त्रसस्थावरभेदभिन्ने 'लोके' प्राणिगणे न कमपि प्राणिनं "हिंस्यात्' न व्यापादयेत्, तथैकान्तेन निश्चला जीवादितत्त्वेषु दृष्टि:-सम्यग्दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः निष्प्रकम्पसम्यक्त्व इत्यर्थः, तथा न विद्यते परिसमन्तात्सुखार्थं गृह्यत इति परिग्रहो यस्यासौ अपरिग्रहः, तुशब्दादाद्यन्तोपादानाद्वा मृषावादादात्तादानमैथुनवर्जनमपि द्रष्टव्यं, तथा 'लोकम्' अशुभकर्मकारिणं तद्विपाकफलभुजं वा यदिवा--कषायलोकं तत्स्वरूपतो 'बुध्येत' जानीयात्, न तु तस्य लोकस्य वशं गच्छेदिति ॥२४॥ टीकार्थ - जिनका वर्णन पहले किया गया है, ऐसे इन नरकों को अर्थात् नरक में होनेवाले दुःखों को सुनकर . (यहां नरक के दुःखों को नरक पद से कहा है क्योंकि जो जिसमें रहता है, वह उस स्थान के वाचक शब्द से भी कहा जाता है) बुद्धि से सुशोभित बुद्धिमान् पुरुष यह कार्य करे । वह कार्य शास्त्रकार दिखलाते है- त्रस और स्थावर भेदवाले समस्त प्राणिरूप लोक में किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । तथा जीवादि तत्त्वों में निश्चल दृष्टि रखता हुआ अर्थात् अविचल सम्यक्त्व को धारण करता हुआ एवं जिसे लोग सुख के लिए चारों ओर से ग्रहण करते हैं ऐसे परिग्रह को वर्जित करता हुआ तथा तु शब्द से अथवा आदि और अन्त के ग्रहण से मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन को भी त्यागता हुआ पुरुष, अशुभ कर्म करनेवाले अथवा अशुभ कर्म का फल भोगनेवाले जीवों को अथवा कषायों को स्वरूपतः जानकर उनके वश में न जाय ॥२४॥ ३३५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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