________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा २१-२२
नरकाधिकारः जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगायऽताणुक्कमणं करेंति
॥२१॥ छाया - सदाजला नाम नद्यमिदुर्गा, पिच्छिला लोहविलीनतप्ता ।
यस्यामभिदुर्गायां प्रपद्यमाना एका अत्राणाः उत्क्रमणं कुर्वन्ति ॥ अन्वयार्थ - (सयाजला नाम) सदाजला नामक (भिदुग्गा) बड़ी विषम (नदी) एक नदी है (पविज्जलं) उसका जल क्षार पीब (रस्सी) और रक्त से मलिन रहता है अथवा वह बड़ी पिच्छिल है (लोहविलीणतत्ता) तथा वह आग से गले हुए लोह के द्रव के समान अति उष्ण जलवाली है (अभिदुग्गंसि) अति विषम (जंसी पवज्जमाणा) जिस नदी में गये हुए नारकी जीव (एगायतानुक्कमणं करेंति) अकेले रक्षक रहित तैरते हैं।
भावार्थ - सदाजला नामक एक नरक की नदी है, उसमें जल हमेशः रहता है इसलिए वह सदाजला कहलाती है। वह नदी बड़ी कष्टदायिनी है। उसका जल क्षार, पीब (रस्सी) और रक्त से सदा मलिन रहता है और वह आग से गले हुए लोह के द्रव के समान अति उष्ण जल को धारण करती है । उस नदी में बिचारे नारकी जीव रक्षक रहित अकेले तैरते हैं।
___टीका - सदा-सर्वकालं जलम्-उदकं यस्यां सा तथा सदाजलाभिधाना वा 'नदी' सरिद् 'अभिदुर्गा' अतिविषमा प्रकर्षेण विविधमत्युष्णं क्षारपूयरूधिराविलं जलं यस्यां सा प्रविजला यदिवा 'पविज्जले'त्ति रूधिराविलत्वात् पिच्छिला, विस्तीर्णगम्भीरजला वा अथवा प्रदीप्तजला वा, एतदेव दर्शयति-अग्निना तप्तं सत् 'विलीनं' द्रवतां गतं यल्लोहम्-अयस्तद्वत्तप्ता, अतितापविलीनलोहसदृशजलेत्यर्थः, यस्यां च सदाजलायाम् अभिदुर्गायां नद्यां प्रपद्यमाना नारकाः 'एगाय'त्ति एकाकिनोऽत्राणा 'अनुक्रमणं' तस्यां गमनं प्लवनं कुर्वन्तीति ॥ २१ ।।
टीकार्थ - जिसमें सब समय जल भरा रहता है. उसे 'सदाजला' कहते है. अथवा जिसका स है, ऐसी नरक की एक नदी है, वह बड़ी विषम अर्थात कष्टदायिनी है, उसका जल अत्यन्त उष्ण और क्षार, पीब तथा रक्त से मलिन रहता है, अथवा रक्त से भरी हुई होने के कारण वह बड़ी पिच्छिल चिकनी है, अथवा वह विस्तृत एवं गंभीर जलवाली है। अथवा वह प्रदीप्तजला यानी अत्युष्ण जलवाली है। यही शास्त्रकार दिखलाते हैंआग से तपाहुआ अत एव द्रव को प्राप्त जो लोह उसके समान तापवाली वह नदी है अर्थात् अत्यन्त ताप से तपकर गले हुए लोह के समान उसका जल गर्म रहता है । ऐसी सदाजला नामक अति विषम नदी में पड़े हुए नारकी जीव अकेले रक्षक रहित तैरते हैं ॥२१॥
- साम्प्रतमुद्देशकार्थमुपसंहरन् पुनरपि नारकाणां दुःखविशेष दर्शयितुमाह___- अब शास्त्रकार उद्देशक को समाप्त करते हुए फिर भी नारकी जीवों के दुःख बताने के लिए कहते हैंएयाई फासाई फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्ठितीयं । ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्रवं
॥२२॥ छाया - एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बालं निरन्तरं तत्र चिरस्थितिकम् ।
न हव्यमानस्य तु भवति त्राणम्, एकः स्वयं पर्य्यनुभवति दुःखम् ॥ अन्वयार्थ - (तत्थ) उस नरक में (चिरद्वितीय) चिरकालतक निवास करनेवाले (बालं) अज्ञानी नारकी जीव को (एयाई) पूर्वोक्त ये (फासाई) स्पर्श यानी दुःख (निरंतर) सदा (फुसंति) पीड़ित करते हैं (हम्ममाणस्स उ) पूर्वोक्त दुःखों से मारे जाते हुए नारकी जीव का (ताणं ण होइ) त्राण नहीं होता (एगो सयं दुक्खं पच्चणुहोइ) वह अकेले उक्त दुःखों को भोगता है।
भावार्थ - पहले के दो उद्देशो में जिन कठिन दःखों का वर्णन किया है, वे सब दःख निरन्तर अज्ञानी नारकी जीव को होते रहते हैं। उस नारकी जीव की आयु भी लम्बी होती है और उस दुःख से उसकी रक्षा भी नहीं हो सकती है। वह अकेले उक्त दुःखों को भोगता है, उसकी सहायता कोई नहीं कर सकता ।
टीका - 'एते' अनन्तरोद्देशकद्वयाभिहिताः 'स्पर्शाः' दुःखविशेषाः परमाधार्मिकजनिताः परस्परापादिताः
३३३