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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा २० नरकाधिकारः छाया - भञ्जन्ति पूर्वारयः सरोष, समुद्राणि मुसलानि गृहीत्वा । ते मिजदेहाः रुधिरं वमन्तोऽथोमुखाः धरणीतले पतन्ति | अन्वयार्थ - (समग्गरे मसले गहेत) मदगर और मसल हाथ में लेकर नरकपाल (पवमरी) पहेले के शत्र के समान (सरोस) क्रोध के सहित (भंजंति) नारकि जीवों के अगों को तोड़ देते हैं (भिन्नदेहा) जिनकी देह टूट गयी है ऐसे नारकी जीव (रुहिरं वमंता) रक्त वमन कराते हुए (ओमद्धगा) अधोमुख होकर (धरणितले) पृथिवी तल में (पडंति) गिर जाते हैं। भावार्थ - परमाधार्मिक पहले के शत्रु के समान हाथ में मुद्गर और मुसल लेकर उनके प्रहार से नारकी जीवों के शरीर को चूर-चूर कर देते हैं । गाढ़ प्रहार पाये हुए और मुख से रुधिर का वमन करते हुए नारकी जीव, अधोमुख होकर पृथिवी पर गिर जाते हैं। टीका - 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे पूर्वमरय इवारयो जन्मान्तरवैरिण इव परमाधार्मिका यदिवा-जन्मान्तरापकारिणो नारका अपरेषामङ्गानि 'सरोषं' सकोपं समुद्राणि मुसलानि गृहीत्वा 'भञ्जन्ति' गाढप्रहारैरामर्दयन्ति, ते च नारकास्त्राणरहिताः शस्त्रप्रहारैर्भिन्नदेहा रुधिरमुद्वमन्तोऽधोमुखा धरणितले पतन्तीति ॥१९॥ किञ्च टीकार्थ - 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है । दूसरे जन्म के वैरी के समान परमाधार्मिक, अथवा दूसरे जन्म के अपकारी नारकी जीव दूसरे नारकी जीवों के अङ्गों को क्रोध सहित मुद्गर और मुसल लेकर गाढ़ प्रहार से तोड़ देते हैं । रक्षक रहित वे नारकी जीव, शस्त्र के प्रहार से चूर्णित शरीर होकर रुधिर वमन करते हुए अधोमुख पृथिवी पर गिर जाते हैं ॥१९॥ अणासिया नाम महासियाला, पागब्मिणो तत्थ सयायकोवा । खज्जति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरगा संकलियाहि बद्धा ॥२०॥ छाया - अनशिता नाम महाशृगालाः प्रगम्भिणस्तत्र सदा सकोपाः । खाधन्ते तत्र बहुक्रूरकर्माणः अदूरगाः शृङ्खलेबद्धाः ॥ अन्वयार्थ - (तत्थ) उस नरक में (सयायकोवा) सदा क्रोधित (अणासिया) क्षुधातुर (पागब्मिणो) ढीठ (महासियाला) बड़े बड़े गीदड़ रहते हैं। वे गीदड़ (बहुकूरकम्मा) जन्मान्तर में पाप किये हुए (संकलियाहिं बद्धा) तथा जंजीर में बँधे हुए (अदूरया) निकट में स्थित उन नारकी जीवों को (खजंति) खाते हैं। भावार्थ - उस नरक में हमेशः क्रोधित बड़े ढीठ विशाल शरीरवाले [वैक्रिय] भूखे गीदड़ रहते हैं । वे जंजीर में बंधे हुए तथा निकट में स्थित पापी जीवों को खाते हैं। टीका - महादेहप्रमाणा महान्तः शृगाला नरकपालविकुर्विता 'अनशिता' बुभुक्षिताः, नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यत एतन्नरकेषु, 'अतिप्रगल्भिता' अतिधृष्टा रौद्ररूपा निर्भयाः तेषु नरकेषु सम्भवति 'सदावकोपा' नित्यकुपिताः तैरेवम्भूतैः शृगालादिभिस्तत्र व्यवस्थिता जन्मान्तरकृतबहुक्क्रूरकर्माणः शृङ्खलादिभिर्बद्धा अयोमयनिगडिता 'अदूरगाः' परस्परसमीपवर्तिनो 'भक्ष्यन्ते' खण्डशः 'खाद्यन्त इति ॥२०॥ अपि च टीकार्थ - नरकपालों के द्वारा बनाये हए विशाल शरीरवाले भूखे बडे ढीठ रौद्ररूप निर्भय गीदड उस नरक में होते हैं। नाम शब्द संभावना अर्थ में आया है, यह नरक में संभव है, यह वह बताता है। वे गीदड़ हमेशः क्रोधित रहते हैं। उन गीदड़ों के द्वारा उस नरक में रहनेवाले एक दूसरे के समीपवर्ती, तथा लोह की जंजीर में बँधे हुए पूर्व जन्म के पापी जीव, खाये जाते हैं ॥२०॥ सयाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविज्जलं लोहविलीणतत्ता। 1. त्रोट्यन्ते प्र०। ३३२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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