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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १८-१९ नरकाधिकारः हुआ लम्बा (पव्वयं) एक पर्वत है (तत्था) उस पर्वत पर रहनेवाले (बहुकूरकम्मा) बहुत क्रूर कर्म किये हुए नारकी जीव(सहस्साण मुहुत्तगाणं पर हमति)हजारो मुहूतौ से अधिक काल तक मारे जाते हैं। भावार्थ - महान् ताप देनेवाले आकाश में परमाधार्मिकों के द्वारा बनाया हुआ अति विस्तृत एक शिला का एक पर्वत है, उस पर रहनेवाले नारकी जीव, हजारों मुहूर्ते से अधिक काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं । टीका - नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यते एतन्नरकेषु यथाऽन्तरिक्षे 'महाभितापे' महादुःखैककार्ये एकशिलाघटितो दीर्घः 'वेयालिए'त्ति वैक्रियः परमाधार्मिकनिष्पादितः पर्वतः तत्र तमोरूपत्वान्नरकाणामतो हस्तस्पर्शिकया समारुहन्तो नारका ‘हन्यन्ते' पीडयन्ते, बहूनि क्रूराणि जन्मान्तरोपात्तानि कर्माणि येषां ते तथा, सहस्रसंख्यानां मुहूर्तानां परं-प्रकृष्टं कालं, सहस्रशब्दस्योपलक्षणार्थत्वात्प्रभूतं कालं हन्यन्त इति यावत् ॥१७॥ तथा - टीकार्थ - नाम शब्द सम्भावना अर्थ में आया है। वह यह बताता है कि यह बात हो सकती है जैसे कि महान् ताप से युक्त अर्थात् महान् दुःख देना जिनका प्रधान कार्य है ऐसे आकाश में एक शिला के द्वारा बनाया हुआ, दीर्घ, परमाधार्मिकों से रचित एक पर्वत है, वह पर्वत अन्धकाररूप है, इसलिए हाथ के स्पर्श से उस पर चढ़ते हुए पूर्व जन्म में पाप किये हुए नारकी जीव, हजार मुहूर्तों से अधिक काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे सहस्र शब्द उपलक्षण है, इसलिए चिरकाल तक वे मारे जाते हैं, यह समझना चाहिए ॥१७॥ संबाहिया दुक्कडिणो थणंति, अहो य राओ परितप्पमाणा। एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता उ ॥१८॥ छाया - संबाधिताः दृष्कृतिनःस्तनन्ति, अहि च रात्री परितप्यमानाः । __एकान्तकूटे नरके महति कूटेन तत्स्थाः विषमे हतास्तु । अन्वयार्थ - (संबाहिया) निरन्तर पीड़ित किये जाते हुए (दुक्कडिणो) पापी जीव (अहो य राओ परितप्पमाणा) दिन और रात ताप भोगते हुए (थर्णति) रुदन करते हैं (एगंतकूडे) एकान्त दुःख का स्थान (महंते) विस्तृत (विसमे) कठिन (नरए) नरक में पड़े हुए प्राणी (कूडेण) गले में फाँसी डालकर (हता उ) मारे जाते हुए केवल रुदन करते हैं। भावार्थ - निरन्तर पीडित किये जाते हुए पापी जीव रात-दिन रोते रहते हैं। जिसमें एकान्त दुःख है तथा जो अति विस्तृत और कठिन है, ऐसे नरक में पड़े हुए प्राणी गले में फाँसी डालकर मारे जाते हुए केवल रुदन करते हैं । . टीका - सम्-एकीभावेन बाधिताः पीडिता दुष्कृतं-पापं विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो महापापाः 'अहो' अहनि तथा रात्रौ च 'परितप्यमाना' अतिदुःखेन पीडयमानाः सन्तः करुणं-दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्ति, तथैकान्तेन 'कुटानि' दःखोत्पत्तिस्थानानि यस्मिन स तथा तस्मिन एवम्भते नरके 'महति विस्तीर्णे पतिताः प्राणिनः तेन च कटेन गलयन्त्रपाशादिना पाषाणसमूहलक्षणेन वा 'तत्र' तस्मिन्विषमे हताः तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् स्तनन्त्येव केवलमिति ॥१८॥ अपिच टीकार्थ - एकरूप से पीड़ित किये जाते हुए महापापी जीव, रात-दिन दुःख से पीड़ित होकर करुण रुदन करते रहते हैं ! जिसमें एकान्तरूप से दुःख की उत्पत्ति का स्थान है ऐसे विस्तृत नरक में पड़े हुए प्राणी गले में फाँसी डालकर अथवा पत्थरों के समूह से उस विषम स्थान में मारे जाते हुए केवल रुदन ही किया करते हैं। यहाँ तु शब्द अवधारणार्थक है ॥१८॥ भंजंति णं पुव्वमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतुं । ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमद्धगा धरणितले पडंति ॥१९॥ ३३१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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