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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा १६-१७ नरकाधिकारः टीकार्थ - नरकपाल नारकी जीवों को दूसरे नारकी जीवों के हनन करने आदि कर्मों में लगाकर अथवा पूर्वजन्म में उनके द्वारा किये हुए प्राणियों के घात आदि कार्यों को स्मरण कराकर जन्मान्तर में अशुभ कर्म किये हुए नारकी जीवों को बाणों से मारकर हाथी की तरह भार वहन कराते हैं। जैसे हाथी पर चढकर उससे भार वहन कराते हैं, इसी तरह उस नारकी से भी सवारी ढोने का काम लेते हैं । अथवा जैसे हाथी भारी भार वहन करता है, इसी तरह उस नारकी से भी भारी भार वहन कराते हैं। हाथी की तरह भार वहन करना जो यहाँ कहा है, वह उपलक्षण मात्र है, इसलिए ऊँट की तरह भार वहन करना भी समझ लेना चाहिए । नरकपाल नारकी जीवों से किस प्रकार भार वहन कराते हैं, सो शास्त्रकार दिखाते हैं, उस नारकी के ऊपर एक, दो या तीन व्यक्तियों को बैठाकर उनको उससे वहन कराते हैं । अत्यन्त भार होने के कारण जब वे वहन नहीं करते हैं, तब क्रोधित होकर चाबुक आदि के द्वारा उनको मारते हैं तथा उनके मर्मस्थान का वेध करते हैं ॥१५॥ 'बाला बला भूमिमणुक्कमंता, पविज्जलं कंटइलं महंतं । विवद्धतप्पेहिं विवण्णचित्ते, समीरिया कोट्टबलिं करिति ॥१६॥ छाया - बालाः बलाद् भूमिमनुक्राम्यमाणाः पिच्छिलां कण्टकिलां महतीम् । विबद्धतान् विषण्णचित्तान् समीरिताः कोटबलि कुर्वन्ति ॥ अन्वयार्थ - (बाला) बालक के समान पराधीन बिचारे नारकी जीव, नरकपालों के द्वारा (बला) बलात्कार से (पविज्जलं) कीचड़ से भरी हुई (कंटइल) और काँटों से पूर्ण (महंत) विस्तृत (भूमि) पृथिवी पर (अणुक्कमंता) चलाये जाते हैं (समीरिया) पाप कर्म से प्रेरित नरकपाल (विबद्धतप्पेहिं विवण्णचित्ते) अनेक प्रकार से बाँधे हुए तथा मूर्छित दूसरे नारकी जीवों को (कोट्टबलिं करंति) खण्डशः काटकाटकर इधर उधर फेंक देते हैं। भावार्थ - पाप से प्रेरित नरकपाल, बालक के समान पराधीन बिचारे नारकी जीव को कीचड़ से भरी तथा काँटों से पूर्ण विस्तृत पृथिवी पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। तथा दूसरे नारकी जीवों को अनेक प्रकार से बाँधकर मूर्च्छित उन बिचारों को खण्ड-खण्ड काटकर इधर-उधर फेंक देते हैं। टीका - बाला इव बालाः परतन्त्राः, पिच्छिलां रुधिरादिना तथा कण्टकाकुलां भूमिमनुक्रामन्तो मन्दगतयो बलात्प्रेर्यन्ते, तथा अन्यान् 'विषण्णचित्तान्' मूर्छितांस्तर्पकाकारान् 'विविधम्' अनेकधा बवा ते नरकपालाः 'समीरिताः' पापेन कर्मणा चोदितास्तानारकान् 'कुट्टयित्वा' खण्डशः कृत्वा 'बलिं करिति'त्ति नगरबलिवदितश्चेतश्च क्षिपन्तीत्यर्थः, यदि वा कोट्टबलिं कुर्वन्तीति ॥१६॥ किञ्च - टीकार्थ - बालक के समान पराधीन नारकी जीव, रुधिर आदि से पिच्छिल तथा कण्टकाकीर्ण पृथिवी पर चलते हुए मन्दगति से चलने पर बलात्कार से तेज चलाये जाते हैं । तथा दूसरे मूर्च्छित नारकी जीव को अनेक प्रकार से बांधकर पाप कर्म से प्रेरित नरकपाल खण्ड-खण्ड काटकर नगरबलि के समान इधर-उधर फेंक देते हैं अथवा उन्हें नगर की बलि करते हैं ॥१६॥ वेतालिए नाम महाभितावे, एगायते पव्वयमंतलिक्खे। हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहुत्तगाणं ॥१७॥ छाया - वैक्रियो नाम महाभिताप एकायतः पर्वतोऽन्तरिक्षे । हन्यन्ते तत्स्थाः बहुक्रूरकर्माणः परं सहसाणां मुहूर्तकाणाम् ॥ अन्वयार्थ - (महाभितावे) महान् ताप से युक्त (अंतलिक्खे) आकाश में (वेतालिए) वैक्रिय (एगायते) एक शिला के द्वारा बनाया 1. बलिं कुर्वंति इतघेतच क्षिपंतीत्यर्थः, यदिवा कोट्टबलिं कुर्वन्तीति, कुर्वंति नगरबलिं प्र० । ३३०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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