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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १५
नरकाधिकारः ते मिलदेहाः फलकमिव तष्टास्तप्ताभिराराभिनियोज्यन्ते ॥ अन्वयार्थ - (बालस्स पुट्ठी) निर्विवकी नारकी जीव की पीठ (वहेन) लाठी से मारकर (भंजंति) तोड़ देते हैं (अओघणेहिं) तथा लोहे के घन से (सीसंपि) उनका सिर भी (भिदंति) तोड़ देते हैं (भिन्नदेहा) जिनके अङ्ग चूर्ण कर दिये गये हैं । ऐसे (ते) वे नारकी जीव, (तत्ताहि आराहिं) तप्त आरा के द्वारा (फलगंव तच्छा) काष्ठ के फलक के समान चीरकर पतले किये हुए (णियोजयंति) गर्म शीसा पीने के लिए प्रवृत्त किये जाते हैं।
भावार्थ - नरकपाल लाठी से मारकर नारकी जीवों की पीठ तोड़ देते हैं तथा लोहे के घन से मारकर उनका शिर चूर-चूर कर देते हैं। इसी तरह उनकी देह को चूर-चूर करके उन्हें तप्त आरा से काष्ठ की तरह चीर देते हैं, फिर उनको गर्म शीसा पीने के लिए बाध्य करते हैं।
टीका - 'बालस्य' वराकस्य नारकस्य व्यथयतीति व्यथो-लकुटादिप्रहारस्तेन पृष्ठं 'भञ्जयन्ति' मोटयन्ति तथा शिरोऽप्ययोमयेन घनेन 'भिन्दन्ति' चूर्णयन्ति, अपिशब्दादन्यान्यप्यङ्गोपाङ्गानि 'द्रुघणघातैश्चूर्णयन्ति 'ते' नारका 'भिन्नदेहाः' चूर्णिताङ्गोपाङ्गाः फलकमिवोभाभ्यां पार्थाभ्यां क्रकचादिना 'अवतष्टाः' तनूकृताः सन्तस्तप्ताभिराराभिः प्रतुद्यमानास्तप्तत्रपुपानादिके कर्मणि 'विनियोज्यन्ते' व्यापार्यन्त इति ॥१४॥ किञ्च -
टीकार्थ - नरकपाल बिचारे नारकी जीव की पीठ पीड़ा देनेवाले लाठी आदि के प्रहार से मारकर तोड़ देते हैं। तथा लोह के घन से मारकर उनका सिर चूर-चूर कर देते हैं । अपि शब्द से दूसरे भी उनके अङ्ग तथा उपाङ्गो को घन से मारकर चूर-चूर कर देते हैं । इस प्रकार जिनके अङ्ग और उपाङ्ग चूर-चूर कर दिये गये हैं ऐसे नारकी जीव शरीर के दोनो भागों में आरा के द्वारा चीरकर पतले किये जाते हैं फिर गर्म आरा से पीड़ित किये जाते हुए वे शीसा पीने आदि कार्यो में प्रवृत्त किये जाते हैं।
अभिजुंजिया रुद्द असाहुकम्मा, उसुचोइया हत्थिवहं वहति । एगं दूरूहित्तु दुवे ततो वा, आरुस्स विज्झंति ककाणओ से
॥१५॥
छाया - अभियोज्य रोद्रमसाधुकर्मणः, इषुचोदितान् हस्तिवहं वाहयन्ति ।
एकं समारोह्य द्वौ त्रीन् वा, भारुष्य विध्यन्ति मर्माणि तस्य ॥ अन्वयार्थ - (असाहुकम्मा) पापी नारकी जीवों को (रुद्द अभिजुंजिया) उनके जीव हिंसादि कार्य को स्मरण कराकर (उसुचोइया) तथा बाण के प्रहार से प्रेरित करके (हत्थिवह वहति) उनसे हाथी की तरह भार वहन कराते हैं (एग दुवे ततो वा दुरूहित्तु) तथा एक, दो, या तीन जीवों को उनकी पीठ पर चढ़ाकर उनको चलाते हैं और (आरुस्स) क्रोध करके (से) उनके (ककाणओ) मर्म स्थान को (विज्झंति) वेध करते
भावार्थ - नरकपाल पापी नारकी जीवों के पूर्वकृत पाप को स्मरण कराकर, बाण के प्रहार से मारकर, हाथी के समान भार ढोने के लिए उनको प्रवृत्त करते हैं। उनकी पीठ पर एक, दो, तीन नारकियों को बैठाकर चलने के लिए प्रेरित करते हैं तथा क्रोधित होकर उनके मर्म स्थान में प्रहार करते हैं। ___टीका - रौद्रकर्मण्यपरनारकहननादिके 'अभियुज्य' व्यापार्य यदिवा-जन्मान्तरकृतं 'रौद्र' सत्त्वोपघातकार्यम् 'अभियुज्य' स्मारयित्वा असाधूनि-अशोभनानि जन्मान्तरकृतानि कर्माणि-अनुष्ठानानि येषां ते तथा तान् ‘इषुचोदितान्' शराभिघातप्रेरितान् हस्तिवाहं वाहयन्ति नरकपालाः, यथा हस्ती वाह्यते समारुह्य एवं तमपि वाहयन्ति, यदिवा-यथा हस्ती महान्तं भारं वहत्येवं तमपि नारकं वाहयन्ति, उपलक्षणार्थत्वादस्योष्ट्रवाहं वाहयन्तीत्याद्यप्यायोज्यं, कथं वाहयन्तीति दर्शयति-तस्य नारकस्योपर्येकं द्वौ त्रीन् वा 'समारुह्य' समारोप्य ततस्तं वाहयन्ति, अतिभारारोपणेनावहन्तम् 'आरुष्य' क्रोधं कृत्वा प्रतोदादिना 'विध्यन्ति' तुदन्ति, 'से' तस्य नारकस्य 'ककाणओ'त्ति मर्माणि विध्यन्तीत्यर्थः ॥१५।। अपि च - 1. पाते० प्र०। 2. मर्माणि प्र० ।