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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा १३-१४
नरकाधिकारः - अन्वयार्थ - (ते) वे परमाधार्मिक (महंतीउ) बड़ी (चिया) चिता (समारभित्ता) बनाकर उसमें (कलुणं रसंत) करुण रुदन करते हुए नारकी जीव को (छुब्मंति) फेंक देते हैं (तत्थ) उसमें (असाहुकम्मा) पापी जीव (आवट्टती) द्रवीभूत हो जाते हैं (जहा) जैसे (जोइमझे) आग में (पडियं) पड़ा हुआ (सप्पी) घृत द्रव (पिघल) हो जाता है।
भावार्थ - परमाधार्मिक बड़ी चिता बनाकर उसमें करुण रुदन करते हुए नारकी जीव को फेंक देते हैं, उसमें पापी जीव गलकर पानी हो जाते हैं, जैसे आग में पड़ा हुआ घृत द्रव हो जाता है ।
टीका - महतीश्चिताः समारभ्य नरकपालाः 'तं' नारकं विरसं 'करुणं' दीनमारसन्तं तत्र क्षिपन्ति, स चासाधुकर्मा 'तत्र' तस्यां चितायां गतः पन् 'आवर्तते' विलीयते, यथा- 'सर्पिः' घृतं ज्योतिर्मध्ये पतितं द्रवीभवत्येवमसावपि विलीयते, न च तथापि भवानुभावात्प्राणैर्विमुच्यते ॥१२॥
टीकार्थ - नरकपाल, विशाल चिता बनाकर करुण रुदन करते हुए नारकी जीव को उसमें डाल देते हैं, वह पापी उस चिता में जाकर द्रव हो जाता है । जैसे आग में डाला हुआ घृत द्रव हो जाता है, इसी तरह वह भी द्रव हो जाता है, परन्तु नरक भव के प्रताप से वह प्राण रहित नहीं होता है ॥१२॥
- अयमपरो नरकयातनाप्रकार इत्याह -
- यह दूसरा नरक की यातना का प्रकार कहा जाता है - सदा कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म । हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं, सत्तुव्व डंडेहि समारभंति
॥१३॥ छाया - सदा कृत्स्नं पुनधर्मस्थानं, गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् ।
___ हस्तेश्च पादेश्व बवा शत्रुमिव दण्डः समारभन्ते ॥
अन्वयार्थ - (सदा) सदा-सर्व-काल (कसिणं) सम्पूर्ण (घम्मठाणं) एक गर्मस्थान है (गाढोवणीय) निधत्त निकाचित आदि कर्मों से जो प्राप्त होता है (अइदुक्खधम्म) अत्यन्त दुःख देना जिसका स्वभाव है (तत्थ) उस नरक में (हत्येहिं पाएहि य बंधिऊणं) हाथ और पैर बाँधकर (सत्तुब्ब) शत्रु की तरह (डंडेहिं) दण्डों के द्वारा नरकपाल (समारभंति) ताड़न करते हैं।
भावार्थ - निरन्तर जलनेवाला एक गर्मस्थान है, वह निधत्त, निकाचित आदि अवस्थावाले कर्मों से प्राणियों को प्राप्त होता है तथा वह स्वभाव से ही अत्यन्त दुःख देनेवाला है, उस स्थान में नारकी जीव को हाथ पैर बाँधकर शत्रु की तरह नरकपाल डंडों से ताड़न करते हैं।
टीका - 'सदा' सर्वकालं 'कृत्स्नं' सम्पूर्ण पुनरपरं 'धर्मस्थानं' उष्णस्थानं दृढैनिधत्तनिकाचितावस्थैः कर्मभिः 'उपनीतं ढौकितमतीव दुःखरूपो धर्मः-स्वभावो यस्मिंस्तदतिदुःखधर्म तदेवम्भूते यातनास्थाने तमत्राणं नारकं हस्तेषु पादेषु च बद्ध्वा तत्र प्रक्षिपन्ति, तथा तदवस्थमेव शत्रुमिव दण्डैः 'समारभन्ते' ताडयन्ति ॥१३।। किञ्च
टीकार्थ - हमेशः सर्व भाग में उष्ण एक दुसरा गर्म स्थान है । जो दृढ़ अर्थात् निधत्त निकाचित अवस्थावाले कर्मों से होता है तथा जो स्वभाव से ही अत्यन्त दुःख देनेवाला है, ऐसे यातना स्थान में त्राण रहित नारकी जीव को हाथ पैर बाँधकर नरकपाल डाल देते हैं और वहाँ उस दशा में पड़े हुए उनको शत्रु की तरह डंडों से मारते हैं ॥१३॥
भंजंति बालस्स वहेण पुट्ठी, सीसंपि भिंदंति अओघणेहिं । ते भिन्नदेहा फलगं व तच्छा, तत्ताहिं आराहिं णियोजयंति
छाया - भान्ति बालस्य व्यथेन पृष्ठं, शीर्षमपि भिन्दन्त्ययोधनेन ।
॥१४॥
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