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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा ११-१२
नरकाधिकारः
टीका - पूर्वदुष्कृतकारिणं तीक्ष्णाभिरयोमयीभिः शूलाभिः नरकपाला नारकमतिपातयन्ति, किमिव ? -वशमुपगतं श्वापदमिव कालपृष्ठसूकरादिकं स्वातन्त्र्येण लब्ध्वा कदर्थयन्ति, ते नारकाः शूलादिभिर्विद्धा अपि न म्रियन्ते, केवलं 'करुणं' दीनं स्तनन्ति, न च तेषां कश्चित्त्राणायालं तथैकान्तेन 'उभयतः' अन्तर्बहिश्च 'ग्लाना' अपगतप्रमोदाः सदा दुःखमनुभवन्तीति ॥१०॥ तथा
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टीकार्थ - पूर्व जन्म में पाप किये हुए नारकी जीव को नरकपाल तीखे लोह के शूलों से वेध करते हैं। किसकी तरह ? वश में आये हुए मृग तथा सुअर आदि की तरह, स्वन्त्रता से पाकर उन्हें पीड़ा देते हैं । शूल आदि के द्वारा वेध किये हुए भी नारकी जीव मरते नहीं हैं किन्तु करुण क्रन्दन करते हैं। उन नारकी जीवों की रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं है। वे नारकी जीव भीतर और बाहर दोनो ओर से हर्ष रहित होकर सदा दुःख अनुभव करते हैं ॥१०॥
सया जलं नाम निहं महंतं, जंसी जलंतो अगणी अकट्ठो । चिट्ठिति बद्धा बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरद्वितीया
छाया - सदा ज्वलनाम निहं महत्, यस्मिन् ज्वलनग्निरकाष्ठः । तिष्ठन्ति बद्धाः बहुक्रूरकर्माणः अरहस्वराः केऽपि चिरस्थितिकाः ॥
अन्वयार्थ - (सया) सब समय (जल) जलता हुआ (महंतं) महान् (निहं) एक प्राणियों का घातस्थान है (जंसी) जिसमें (अकट्ठो अगणी) बिना काष्ठ की आग (जलतो) जलती रहती है। ( बहु कूरकम्मा ) जिन्होंने पूर्व जन्म में बहुत क्रूर कर्म किये हैं (चिरद्वितीया) तथा जो उस नरक में चिरकाल तक निवास करनेवाले हैं (बद्धा) वे उस नरक में बाँधे हुए (अरहस्सरा ) तथा चिल्लाते हुए (चिट्ठेति) रहते हैं ।
भावार्थ - एक ऐसा प्राणियों का घात स्थान है, जो सदा जलता रहता है और जिसमें बिना काष्ठ की आग निरन्तर जलती रहती है, उस नरक में पापी प्राणी बाँध दिये जाते हैं, वे अपने पाप का फल भोगने के लिए चिरकाल तक निवास करते हैं और वेदना के मारे निरन्तर रोते रहते हैं ।
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टीका 'सदा' सर्वकालं 'ज्वलत्' देदीप्यमानमुष्णरूपत्वात् स्थानमस्ति, निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहम्-आघातस्थानं तच्च 'महद्' विस्तीर्णं यत्राकाष्ठोऽग्निर्ज्वलन्नास्ते, तत्रैवम्भूते स्थाने भवान्तरे बहुक्रूरकृतकर्माणस्तद्विपाकापादितेन पापेन बद्धास्तिष्ठन्तीति किम्भूताः ? 'अरहस्वरा' बृहदाक्रन्दशब्दाः 'चिरस्थितिकाः ' प्रभूतकालस्थितय इति ॥ ११ ॥ तथा
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।।११।।
टीकार्थ जो उष्णरूप होने के कारण सदा जलता रहता है, ऐसा एक स्थान है । कर्म वशीभूत प्राणी जिसमें मारे जाते हैं, उसे निह कहते हैं, वह प्राणियों का घातस्थान है । वह स्थान बहुत विस्तारवाला है । उसमें बिना काष्ठ की आग जलती रहती है। ऐसे उस स्थान में पूर्वजन्म में जिन्होंने अत्यन्त क्रूरकर्म किये हैं, वे प्राणी अपने पाप का फल भोगने के लिए बँधे हुए निवास करते हैं । वे प्राणी कैसे हैं ? जोर जोर से रोते रहते हैं और चिरकाल तक वहाँ निवास करते हैं ॥११॥
चिया महंतीउ समारभित्ता, छुब्भंति ते तं कलुणं रसंतं । आवट्टती तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पडियं जोइमज्झे
छाया - चिताः महतीः समारभ्य, क्षिपन्ति ते तं करुणं रसन्तम् । आवर्तते तत्रासाधुकर्मा, सर्पिर्यथा पतितं ज्योतिर्मध्ये ||
1. ०ममितापयन्ति प्र० । 2. लालपृष्ठो मृगभेदे (हैमः) ।
।।१२।।
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