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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पश्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा ६-७
नरकाधिकारः
भावार्थ - परमाधार्मिक निर्विवेकी नारकी जीवों को लोहमय मार्ग के समान तस भूमि पर बलात्कार से चलाते हैं तथा रुधिर और पीब से पिच्छिल (कीचड़वाली) भूमि पर भी उनको चलने के लिए बाध्य करते हैं। जिस कठिन स्थान में जाते हुए नारकी जीव रुकते हैं, उस स्थान में बैल की तरह दण्ड आदि से मारकर उन्हें वे ले जाते हैं । टीका 'बाला' निर्विवेकिनः प्रज्वलितलोहपथमिव तप्तां भुवं 'पविज्जलं 'ति रुधिरपूयादिना पिच्छिलां बलादनिच्छन्तः 'अनुक्रम्यमाणाः' प्रेर्यमाणा विरसमारसन्ति, तथा 'यस्मिन्' अभिदुर्गे कुम्भीशाल्मल्यादौ प्रपद्यमाना नरकपालचोदिता न सम्यग्गच्छन्ति, ततस्ते कुपिताः परमाधार्मिकाः 'प्रेष्यानिव' कर्मकरानिव बलीवर्दवद्वा दण्डैर्हत्वा प्रतोदनेन प्रतुद्य 'पुरतः ' अग्रतः कुर्वन्ति, न ते स्वेच्छया गन्तुं स्थातुं वा लभन्त इति ॥५॥ किञ्च
टीकार्थ नरकपाल, निर्विवेकी नारकी जीवों को जलाते हुए लोहमय मार्ग के समान उष्ण तथा रक्त और पी की अधिकता के कारण पंकिल भूमि पर उनकी इच्छा न होने पर भी बलात्कार से चलाते हैं । नारकी जीव उक्त भूमि पर चलते हुए बुरी तरह शब्द करते हैं । अति विषम कुम्भी और शाल्मलि आदि जिस नरक में परमाधार्मिक जाने के लिए उनको प्रेरित करते हैं, उस भूमि में जो अच्छी तरह नहीं चलते हैं, उन पर क्रोधित होकर वे नोकर की तरह अथवा बैल की तरह डंडा या चाबुक से मारकर आगे चलाते हैं । वे नारकी जीव अपनी इच्छा से न तो कहीं जाने पाते हैं, न रहने पाते हैं ॥५॥
ते संपगाढंसि पवज्जमाणा, सिलाहि हम्मंति भिपातिणीहिं संतावणी नाम चिरद्वितीया, संतप्पती जत्थ असाहुकम्मा
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छाया
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ते सम्प्रगाढं प्रपद्यमानाः शिलाभिर्हन्यन्ते निपातिनीभिः | संतापनी नाम चिरस्थितिका सन्तप्यते यत्रासाधुकर्मा |
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अन्वयार्थ - (ते) वे नारकी जीव (संपगाढंसि) बहुत वेदनायुक्त असह्य नरक में (पवज्जमाणा) गये हुए (भिपातिणीहिं) सम्मुख गिरनेवाली ( सिलाहि ) शिलाओं के द्वारा (हम्मति) मारे जाते हैं (संतावणी नाम) संतापनी यानी कुम्भी नामक नरक ( चिरद्वितीया) चिरकाल तक स्थितिवाला है ( जत्थ) जिसमें (असाहुकम्मा) पाप कर्म करनेवाला जीव (संतप्पती) ताप भोगता है ।
भावार्थ - तीव्र वेदनायुक्त नरक में पड़े हुए नारकी जीव सामने से गिरती हुई शिलाओं से मारे जाते हैं । कुम्भी नामक नरक में गये हुए प्राणियों की स्थिति बहुत काल की होती है । पापी उसमें चिरकाल तक ताप भोगते हैं । टीका 'ते' नारकाः 'सम्प्रगाढ' मिति बहुवेदनमसह्यं नरकं मार्गं वा प्रपद्यमाना गन्तुं स्थातुं वा तत्राशक्नुवन्तो ऽभिमुखपातिनीभिः शिलाभिरसुरैर्हन्यन्ते, तथा सन्तापयतीति सन्तापनी - कुम्भी सा च चिरस्थितिका तद्गतोऽसुमान् प्रभूतं कालं यावदतिवेदनाग्रस्त आस्ते यत्र च 'सन्तप्यते' पीडयतेऽत्यर्थम् 'असाधुकर्मा' जन्मान्तरकृताशुभानुष्ठान इति ॥ ६ ॥ तथा
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टीकार्थ वे नारकी जीव बहुत वेदनावाले असह्य नरक अथवा मार्ग में गये हुए वहाँ से हट जाने तथा रहने में असमर्थ होते हुए असुरों के द्वारा सामने से आनेवाली शिलाओं के द्वारा मारे जाते हैं । जो प्राणियों को चारों तरफ से ताप देती है, उसे सन्तापनी कहते हैं, वह कुम्भी नरक है, उसकी स्थिति चिरकाल की है अर्थात् उस कुम्भी नरक में गया हुआ प्राणी चिरकाल तक अत्यन्त वेदना भोगता रहता है तथा पूर्वजन्म में पाप किया हुआ प्राणी उस कुम्भी में जाकर अत्यन्त ताप भोगता है ॥६॥
कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, ततोवि दड्ढा पुण उप्पयंति । ते उड्ढकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहिं खज्जंति सणप्फएहिं
॥७॥