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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ८-९ नरकाधिकारः छाया - कन्दुसू प्रक्षिप्य पचन्ति बालं, ततोऽपि दग्धाः पुनरुत्पतन्ति । ते ऊर्ध्वकायैः प्रखाधमाना अपरः खाद्यन्ते सनखपदैः ॥ अन्वयार्थ - (बालं) निर्विवेकी नारकी जीव को (कंदूसु) गेंद के समान आकारवाले नरक में (पक्खिप्प) डालकर (पयंति) परमाधार्मिक पकाते हैं (दड्डा) जलते हुए वे नारकी जीव (ततोवि) वहाँ से (पुण उप्पयंति) फिर ऊपर उड़ते हैं (ते) वे नारकी जीव (उड्डकाएहिं) द्रोण काक के द्वारा खाये जाते हैं (अवरेहिं सणप्फएहिं) तथा दूसरे सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा भी खाये जाते हैं। भावार्थ - नरकपाल, निर्विवेकी नारकी जीव को गेंद के समान आकारवाली कुम्भी में डालकर पकाते हैं, फिर वे वहाँ से भुने जाते हुए चने की तरह उड़कर ऊपर जाते हैं, वहाँ वे द्रोण काक द्वारा खाये जाते हैं जब वे दूसरी ओर जाते हैं तब सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा खाये जाते हैं। टीका - तं 'बालं' वराकं नारकं कन्दुषु प्रक्षिप्य नरकपालाः पचन्ति, ततः पाकस्थानात् ते दह्यमानाचणका इव भृज्यमाना ऊर्ध्वं पतन्त्युत्पतन्ति, ते च ऊर्ध्वमुत्पतिताः 'उड्ढकाएहिति द्रोणैः काकैर्वेक्रियैः 'प्रखाद्यमाना' णा अन्यतो नष्टाः सन्तोऽपरैः 'सणप्फएहि ति सिंहव्याघ्रादिभिः 'खाद्यन्ते' भक्ष्यन्ते इति ॥७॥ किञ्च - ___टीकार्थ - नरकपाल, निर्विवेकी बिचारे नारकी जीव को गेंद के समान आकारवाले नरक में डालकर पकाते हैं । वहाँ चने की तरह पकते हुए वे जीव वहाँ से ऊपर उड़कर जाते हैं । ऊपर उड़कर गये हुए वे प्राणी वैक्रिय द्रोण काक के द्वारा खाये जाते हैं और वहाँ से दूसरी ओर गये हुए वे वैक्रिय सिंह, व्याघ्र आदि नखवाले जानवरों से खाये जाते हैं ॥७॥ समूसियं नाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति । अहोसिरं कट्ठ विगत्तिऊणं, अयं व सत्थेहि समोसवेंति ॥८॥ छाया - समुच्छ्रितं नाम विधूमस्थानं, यत् शोकतप्पाः करुणं स्तनन्ति । ___ अधः शिरः कृत्वा विकायोवत् शस्त्रेः खण्डशः खण्डयन्ति । अन्वयार्थ - (समुसियं नाम विधूमठाणं) ऊँची चिता के समान धूम रहित अग्नि का एक स्थान है (ज) जिस स्थान को प्राप्त करके (सोयतत्ता) शोकतप्त नारकी जीव (कलुणं थणंति) करुण रुदन करते हैं (अहो सिर कट्ठ) नरकपाल नारकी जीव के सिर को नीचा करके (विगत्तिऊणं) तथा उसकी देह को काटकर (अयंव सत्येहिं) लोह के शस्त्र से (समोसवैति) खण्ड खण्ड काट डालते हैं। . भावार्थ - ऊँची चिता के समान निर्धूम अग्नि का एक स्थान है। वहाँ गये हुए नारकी जीव शोक से तस होकर करुण रोदन करते हैं। परमाधार्मिक, उन जीवों का सिर नीचे करके उनका सिर काट डालते हैं तथा लोह के शस्त्रों से उनकी देह को खण्ड-खण्ड कर देते हैं। टीका - सम्यगुच्छ्रितं-चितिकाकृति, नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यन्ते एवंविधानि नरकेषु यातनास्थानानि, विधूमस्य-अग्नेः स्थानं विधूमस्थानं यत्प्राप्य शोकवितप्ताः 'करुणं' दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्तीति, तथा अधःशिरः कृत्वा देहं च विकायोवत् 'शस्त्रैः' तच्छेदनादिभिः 'समोसवेंति'त्ति खण्डशः खण्डयन्ति ॥८॥ अपि च- टीकार्थ - चिता के समान एक धूम रहित अग्नि का स्थान है, यहाँ नाम शब्द संभावना अर्थ में आया है। नरक में ऐसा पीड़ा का स्थान होना सम्भव है, यह नाम शब्द बतलाता है। उस स्थान को प्राप्त नारकी जीव शोक से तप्त होकर करुण रुदन करते हैं । तथा नरकपाल उनका सिर नीचा करके और देह को लोह के शस्त्रों से काटकर खण्ड-खण्ड कर देते हैं ॥८॥ समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पक्खीहिं खजंति अओमुहेहिं । संजीवणी नाम चिरद्वितीया, जंसी पया हम्मइ पावचेया ॥९॥ ३२५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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