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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ४-५
नरकाधिकारः समन्ताद्दहन्ति । तथा 'रहसि' एकाकिनं 'युक्तम्' उपपन्नं युक्तियुक्तं स्वकृतवेदनानुरूपं तत्कृतजन्मान्तरानुष्ठानं तं 'बालम्' अज्ञं नारकं स्मारयन्ति, तद्यथा- तप्तत्रपुपानावसरे मद्यपस्त्वमासीस्तथा स्वमांसभक्षणावसरे पिशिताशी त्वमासीरित्येवं दुःखानुरूपमनुष्ठानं स्मारयन्तः कदर्थयन्ति, तथा-निष्कारणमेव 'आरूष्य' कोपं कृत्वा प्रतोदादिना पृष्ठदेशे तं नारकं परवशं विध्यन्तीति ॥३॥ तथा -
टीकार्थ - तीन नरक भूमियों में परमाधार्मिक और दूसरे नारकी जीव तथा नीचे की चार नरक भूमियों में रहनेवाले दूसरे नारकी जीव नारकी जीवों की भुजा को जड़ से काट लेते हैं, तथा मुख फाड़कर उसमें तप्त लोह का बड़ा गोला डालकर जलाते हैं, तथा एकान्त में उन नारकीओं को ले जाकर अपने द्वारा दी जाती हुई वेदना के अनुरूप उनके द्वारा किये हुए दूसरे जन्मों के कर्मों को उन अज्ञानी नारकीओं को स्मरण कराते हैं। जैसे किगरम सीसा पीलाते समय वे कहते हैं कि- तुम खूब मद्य पीते थे, तथा उनके शरीर के माँस को खिलाते समय कहते हैं कि तुम खूब मांस खाते थे, इस प्रकार दुःख के अनुरूप उनके कर्म को स्मरण कराते हुए उनको पीड़ा देते हैं। तथा बिना कारण ही क्रोध करके चाबुक आदि के द्वारा परवश नारकी जीव को वे पीठ में ताड़न करते हैं ॥३॥
अयं व तत्तं जलियं सजोइ, तऊवमं भूमिमणुक्कमंता । ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता
॥४॥ छाया - अय इव ज्वलितां सज्योतिस्तदुपमां भूमिमनुक्रामन्तः ।
ते दह्यमानाः करुणं स्तनन्ति इषुचोदितास्तमयुगेषु युक्ताः ॥ अन्वयार्थ - (अयंव) तप्त लोह के गोले के समान (सजोइ) ज्योति सहित (जलिय) जलती हुई (तत्त) तप्त भूमि की (तऊवमं) उपमा योग्य (भूमि) भूमि में (अणुक्कमंता) चलते हुए (ते) वे नारकी जीव (डज्झमाणा) जलते हुए (कलुणं थणंति) करुण रुदन करते हैं (उसुचोइया) तथा प्रतोद से मारकर प्रेरित किये हुए (तत्तजुगेसु जुत्ता) तथा तप्त जुए में जोड़े हुए वे करुण रुदन करते हैं।
भावार्थ - तप्त लोह के गोले के समान जलती हुई ज्योति सहित भूमि में चलते हुए नारकी जीव जलते हुए करुण क्रन्दन करते हैं तथा बैल की तरह प्रतोद मारकर प्रेरित किये हुए और तप्त जुए में जोड़े हुए वे नारकी जीव रुदन करते हैं।
टीका - तप्तायोगोलकसन्निभां ज्वलितज्योतिर्भूतां तदेवंरूपां तदुपमा वा भूमिम् 'अनुक्रामन्तः' तां ज्वलितां भूमि गच्छन्तस्ते दह्यमानाः 'करुणं' दीनं-विस्वरं 'स्तनन्ति' रारटन्ति तथा तप्तेषु युगेषु युक्ता गलिबलीवर्दा इव इषुणा प्रतोदादिरूपेण विध्यमानाः स्तनन्तीति ॥४॥ अन्यच्च -
टीकार्थ - जलते हुए लोह के गोले के समान जलती हुई ज्योति स्वरूप पृथिवी के समान पृथिवी में चलते हुए नारकी जीव जलते हुए दीन स्वर से रुदन करते हैं तथा गरम जुए में जोते हुए और बैल की तरह चाबुक आदि से मारकर चलने के लिए प्रेरित किये हुए रुदन करते हैं ॥४॥
बाला बला भूमिमणुक्कमंता, पविज्जलं लोहपहं व तत्तं । जंसीऽभिदुग्गंसि पवज्जमाणा, पेसेव दंडेहिं पुराकरंति छाया - बालाः बलाद् भूमिमनुक्राम्यमाणाः पिच्छिलां लोहपथमिवतमात् ।
यस्मिन् अभिदुर्गे प्रपद्यमानाः प्रेष्यानिव दण्डेः पुरः कुर्वन्ति | ___ अन्वयार्थ - (बाला) अज्ञानी नारकी जीव (लोहपहं व क्त) जलता हुआ लोहमय मार्ग के समान तपी हुई (पविज्जलं) तथा रक्त और पीब के द्वारा पिच्छिल (भूमि) भूमि पर (बला) बलात्कार से परमाधार्मिकों के द्वारा (अणक्कमंता) चलाये जाते हए अभिदुग्गंसि) नारकी जीव कुम्भी अथवा शाल्मलि आदि जिस कठिन स्थान पर (पवज्जमाणा) परमाधार्मिकों के द्वारा चलने के लिए प्रेरित किये हुए जब ठीक नहीं चलते हैं (पसेव दंडेहिं पुरा करंति) तब कुपित होकर परमाधार्मिक दण्ड के द्वारा बैल की तरह उन्हें आगे चलाते हैं।
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