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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा २-३
नरकाधिकारः - यथाप्रतिज्ञातमाह -
- पूर्व गाथा में जो प्रतिज्ञा की गयी है, उसके अनुसार वर्णन करते हैं - हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तंति खुरासिएहिं । गिण्हित्तु बालस्स विहत्तु देहं, वद्धं थिरं पिट्ठतो उद्धरंति
॥२॥ छाया - हस्तेषु पादेषु च बद्धवा, उदरं विकतयन्ति क्षुरप्रासिभिः ।
गृहित्वा बालस्य विहतं देहं वधं स्थिरं पिष्ठत उद्धरन्ति । अन्वयार्थ - (हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं) परमाधार्मिक नारकी जीवों के हाथ पैर बाँधकर (खुरासिएहिं) उस्तेरा और तलवार के द्वारा (उदरं विकत्तंति) उनका पेट फाड़ देते हैं (बालस्स) तथा अज्ञानी नारकी जीव की (विहत्तु देह) लाठी आदि के प्रहार से अनेक प्रकार से ताड़न की हुई देह को (गिण्हित्तु) ग्रहण करके (वद्ध) चमड़े को (थिरं) बलात्कारपूर्वक (पिट्टओ) पीठ से (उद्धरंति) खींच लेते हैं।
भावार्थ - परमाधार्मिक, नारकी जीवों के हाथ, पैर बाँधकर उस्तेरा और तलवार आदि से उनका पेट फाड़ देते हैं । तथा अज्ञानी नारकी जीव की देह को लाठी आदि के प्रहार से चूर-चूर करके फिर उसे पकड़कर उसके पीठ की चमड़ी उखाड़ लेते हैं।
टीका - परमाधार्मिकास्तथाविधकर्मोदयात् क्रीडायमानाः तान्नारकान् हस्तेषु पादेषु बद्धोदरं 'क्षुरप्रासिभिः' नानाविधैरायुधविशेषैः 'विकर्तयन्ति' विदारयन्ति, तथा परस्य बालस्येवाकिञ्चित्करत्वाद्वालस्य लकुटादिभिर्विविधं 'हतं' पीड़ितं देहं गृहीत्वा 'वर्ध' चर्मशकलं 'स्थिरं' बलवत् 'पृष्ठतः' पृष्ठिदेशे 'उद्धरन्ति' विकर्तयन्त्येवमग्रतः पार्श्वतश्चेति ॥२॥ अपि च
टीकार्थ - उस प्रकार के कर्म के उदय होने से दूसरे को दुःख देने में हर्षित होनेवाले परमाधार्मिक उन नारकी जीवों के हाथ, पैर बाँधकर तीक्ष्ण उस्तेरा और तलवार आदि अनेक प्रकार के शस्त्रों से उनका पेट फाड़ देते हैं । तथा जो बालक के समान कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसे दूसरे नारकी जीवों के शरीर को लाठी आदि के द्वारा विविध प्रकार से हनन करके पश्चात् उसे पकड़कर बलात्कार से उसके पीठ का चमड़ा खींच लेते हैं। इसी तरह पार्श्व भाग तथा अग्रभाग का चमड़ा भी खींच लेते हैं ।।२।।
बाहू पकत्तंति' य मूलतो से, थूलं वियासं मुहे आडहति । रहसि जुत्तं सरयंति बालं, आरुस्स विझंति तुदेण पिढे
॥३॥ छाया - बाहून प्रकर्तयन्ति समूलस्तस्य, स्थूलं विकाशं मुखे भादहन्ति ।
रहसि युक्तं स्मारयन्ति बालमारुष्य विध्यन्ति तुदेन पृष्ठे ॥ अन्वयार्थ - (से बाहू) नरकपाल, नारकी जीव की भुजा को (मूलतो) जड़ से (पकतंति) काट लेते हैं (मुहे वियासं) तथा उनका मुख फाड़कर (थूल) जलते हुए लोह के बड़े-बड़े गोले डालकर (आडहति) जलाते हैं (रहंसि) तथा एकान्त में (जुत्त) उनके जन्मान्तर के कर्म को (सरयंति) स्मरण कराते हैं (आरुस्स) तथा बिना कारण ही कोप करके (तुदेन) चाबुक से (पिढे) पीठ में (विमंति) ताड़न करते हैं।
भावार्थ - नरकपाल, नारकी जीव की भुजा को जड़ से काट लेते हैं तथा उनका मुख फाड़कर उसमें तप्तलोह का गोला डालकर जलाते हैं । एवं एकान्त में ले जाकर उनके पूर्वकृत कर्म को याद कराते हैं तथा बिना कारण कोप करके चाबुक से उनकी पीठ पर मारते हैं।
टीका - 'से' तस्य नारकस्य तिसृषु नरकथिवीषु परमाधार्मिका अपरनारकाश्च अधस्तनचतसृषु चापरनारका एव मूलत आरभ्य बाहून् 'प्रकर्तयन्ति' छिन्दन्ति तथा 'मुखे' विकाशं कृत्वा 'स्थूलं' बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रक्षिपन्त आ1. पकप्पंति समू० प्र०।
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