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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा १
नरकाधिकार:
अथ पश्चमाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते ।।
उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके यैः कर्मभिर्जन्तवो नरकेषूत्पद्यन्ते यादृगवस्थाश्च भवन्त्येतत्प्रतिपादितम्, इहापि विशिष्टतरं तदेव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् -
अब पांचवें अध्ययन का दूसरा उद्देशक आरम्भ किया जाता है- प्रथम उद्देशक कहा जा चुका अब दूसरा शक आरम्भ किया जाता है। इसका सम्बन्ध यह है, पहले उद्देशक में प्राणिवर्ग जिन कर्मों के अनुष्ठान से नरक में उत्पन्न होते हैं और वहाँ उनकी जो दशा होती है, सो कहा गया है, अब इस उद्देशक में भी वही बात विशेषरूप से बताई जाती है । इस सम्बन्ध से आये हुए इस उद्देशक के सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह है - अहावरं सासयदुक्खधम्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं। बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेदंति कम्माई पुरेकडाई
॥१॥ छाया - अथापरं शाश्वतदुःखधर्म, तं भवतां प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन ।
बाला यथा दुष्कृतकर्मकारिणो, वेदयन्ति कर्माणि पुराकृतानि ॥ अन्वयार्थ - (अह) इसके पश्चात् (सासयदुक्खधम्म) निरन्तर दुःख देना जिसका धर्म है ऐसे (अवर) दूसरे (तं) नरक के विषय में (भे) आपको (जहातहेणं) ठीक-ठीक (पवक्खामि) मैं कहूँगा (जहा) जिस प्रकार (दुक्कडकम्मकारी) पापकर्म करनेवाले (बाला) अज्ञानी जीव (पुरेकडाई कम्माई वेदंति) पूर्वजन्म में किये हुए अपने कर्मो का फल भोगते हैं ।
भावार्थ- श्री सुधर्मास्वामी जम्बस्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग से कहते है कि अब मैं निरन्तर दुःख देनेवाले दूसरे नरक के विषय में आपको ठीक-ठीक उपदेश करूँगा । पापकर्म करनेवाले प्राणिगण जिस प्रकार अपने पाप का फल भोगते हैं सो बताऊँगा ।
___टीका - 'अर्थ' इत्यानन्तर्ये 'अपरम्' इत्युक्तादन्यद्वक्ष्यामीत्युत्तरेण सम्बन्धः, शश्वद्भवतीति शाश्वतं-यावदायुस्तच्च तदुःखं च शाश्वतदुःखं तद्धर्मः-स्वभावो यस्मिन् यस्य वा नरकस्य स तथा तम्, एवम्भूतं नित्यदुःखस्वभावमक्षिनिमेषमपि कालमविद्यमानसुखलेशं 'याथातथ्येन' यथा व्यवस्थितं तथैव कथयामि, नात्रोपचारोऽर्थवादो वा विद्यत इत्यर्थः, 'बालाः' परमार्थमजानाना विषयसुखलिप्सवः साम्प्रतक्षिणः कर्मविपाकमनपेक्षमाणा 'यथा' येन प्रकारेण दुष्टं कृतं दुष्कृतं तदेव कर्म-अनुष्ठानं तेन वा दुष्कृतेन कर्म-ज्ञानावरणादिकं तदुष्कृतकर्म तत्कर्तुं शीलं येषां ते दुष्कृतकर्मकारिणः त एवम्भूताः 'पुराकृतानि' जन्मान्तरार्जितानि कर्माणि यथा वेदयन्ति तथा कथयिष्यामीति ॥१॥
टीकार्थ - अथ शब्द आनन्तर्य अर्थात् इसके पश्चात् इस अर्थ में आया है । जो बातें पहले बतायी जा चुकी हैं, उनसे दूसरी बातें अब मैं बताऊँगा, यह आगे से सम्बन्ध मिला लेना चाहिए । जो शश्वत् अर्थात् आयु रहने तक होता है, उसे शाश्वत दुःखधर्म कहते हैं। जो आयभर दःख देता है, ऐसा जिसका स्वभाव है, ऐसे नरक को शाश्वत दुःखधर्म कहते हैं । वह नरक सदा प्राणियों को दुःख देता रहता है, उसमें एक पलभर भी सुख का लेश भी नहीं मिलता है। ऐसे नरक को, जैसा वह है वैसा ही कहूँगा । किसी प्रकार का आरोप अथवा घटा बढ़ाकर नहीं, जो पुरुष बाल अर्थात् परमार्थ को नहीं देखते हैं तथा कर्म के फल का विचार नहीं करके पापकर्म करते हैं अथवा बुरे अनुष्ठान के द्वारा ज्ञानावरणीयादि कर्मों का सेवन करते हैं, वे पापी जीव, पूर्व जन्मोपार्जित । दुःख का फल जिस प्रकार नरक में भोगते हैं, उसी प्रकार मैं कहूँगा ॥१॥
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