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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा २७ नरकाधिकारः थे, उनको उनका ही पीब और रक्त पिलाया जाता है अथवा उन्हें गलाया हुआ सीसा पिलाया जाता है। तथा पर्वजन्म के मत्स्यघाती और लब्धक आदि जैसे वे मच्छली और मुग आदि का घात करते थे, उसी तरह काटे जाते हैं और मारे जाते हैं। तथा जो मिथ्याभाषण करते थे, उन्हें मिथ्याभाषण का स्मरण कराकर उनकी जिव्हा काट ली जाती हैं। जो पूर्वजन्म में दूसरे का द्रव्य हरण करते थे, उनके अङ्ग और उपाङ्ग काट लिये जाते हैं, जो परस्त्री का सेवन करते थे, उनका अण्डकोश काट लिया जाता है तथा उन्हें शाल्मलि वृक्ष का आलिङ्गन कराया जाता है । इसी तरह जो महारम्भी और महापरिग्रही एवं क्रोध, मान, माया से युक्त और महापरिग्रही थे, उनको उनके जन्मान्तर के क्रोध आदि को स्मरण कराकर उसी तरह का दुःख दिया जाता है, अतः शास्त्रकार ने यह ठीक ही कहा है कि- जिसने जैसा कर्म किया है, उसके अनुसार ही उसे दुःख की प्राप्ति होती है ॥२६॥ समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा । ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति । त्ति बेमि ॥२७।। त्तिबेमि ।। इति निरयविभत्तिए पढमो उद्देसो समत्तो ।। (गाथाग्रं ३३६) छाया - समय॑ कलुषमनाा इष्टेः कान्तेश्च विप्रहीनाः । ते दुरभिगन्धे कृत्स्नेऽस्पर्शे कर्मोपगताः कुणिमे भावसन्तीति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ - (अणज्जा) अनार्य पुरुष (कलुसं समज्जिणित्ता) पाप उपार्जन करके (इटेहि कंतेहि य विष्पहूणा) इष्ट और प्रिय से रहित होकर (दुब्मिगंधे) दुर्गन्ध से भरे (कसिणे य फासे) अशुभ स्पर्शवाले (कुणिमे) मांस रुधिरादिपूर्ण नरक में (कम्मोवगा) कर्मवशीभूत होकर (आवसंति) निवास करते हैं। भावार्थ - अनार्य पुरुष पाप उपार्जन करके इष्ट और प्रिय से रहित दुर्गन्ध भरे अशुभ स्पर्शवाले मांस रुधिरादि पूर्ण नरक में कर्म वशीभूत होकर निवास करते हैं। टीका - अनार्या अनार्यकर्मकारित्वाद्धिंसानृतस्तेयादिभिराश्रवद्वारैः 'कलुषं' पापं 'समय॑' अशुभकर्मोपचयं कृत्वा 'ते' क्रूरकर्माणो 'दुरभिगन्धे' नरके आवसन्तीति संटङ्कः, किम्भूताः ?- 'इष्टैः' शब्दाभिर्विषयैः 'कमनीयैः' कान्तैर्विविधं प्रकर्षेण हीना विप्रमुक्ता नरके वसन्ति, यदिवा-यदर्थं कलुषं समर्जयन्ति तैर्मातापुत्रकलत्रादिभिः कान्तैश्च विषयैर्विप्रमुक्ता एकाकिनस्ते 'दुरभिगन्धे' कुथितकलेवरातिशायिनि नरके 'कृत्स्ने' संपूर्णेऽत्यन्ताशुभस्पर्शे एकान्तोद्वेजनीयेऽशुभकर्मोपगताः 'कुणिमेति मांसपेशीरुधिरपूयान्त्रफिप्फिसकश्मलाकुले सर्वामध्याधमे बीभत्सदर्शने हाहारवाक्रन्देन कष्टं मा तावदित्यादिशब्दबधिरितदिगन्तराले परमाधमे नरकावासे आ-समन्तादुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावद्यस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुस्तावद् ‘वसन्ति' तिष्ठन्ति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२७॥ इति नरकविभक्तेः प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ टीकार्थ - अनार्य्य पुरुष अनार्य्य कर्म का सेवन करनेवाले हैं, इसलिए वे हिंसा, झूठ और चोरी आदि आश्रवों का सेवन करके अशुभ कर्म की वृद्धि करते हैं, ऐसा करके वे क्रूर कर्मी जीव, दुर्गन्ध युक्त नरक में निवास करते हैं, वे नारकी जीव कैसे हैं ? सो बताते हैं - वे, इष्ट शब्दादि विषय तथा प्रिय पदार्थों से हीन होकर नरक में निवास करते हैं। अथवा वे जीव, जिस माता, पिता, पुत्र और स्त्री के लिए पाप का उपार्जन करते हैं, उनसे रहित होकर अकेले सड़े हए मर्दे से भी ज्यादा बदबूदार तथा जिसका स्पर्श अत्यन्त उद्वेग जनक है चर्बी, रक्त, पीब, फेफसे आदि अशुचि पदार्थों से भरा हुआ अत्यन्त घृणास्पद है एवं हाहाकार के शब्द से जो दिशाओं को बहरा बनानेवाला है, ऐसे अति नीच नरक में उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम काल की आयु से निवास करते हैं । इति शब्द समाप्ति अर्थ में है । ब्रवीमि पूर्ववत् हैं ॥२७॥ यह नरक विभक्ति का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ । ३२०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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