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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा २६ नरकाधिकारः पदार्थों से भरी हुई दुर्गन्ध उस कुम्भी में रक्षक रहित तथा आर्त्तनाद पूर्वक करूण रोदन करते हुए अज्ञानी नारकी जीवों को डालकर नरकपाल पकाते हैं । वे नारकी जीव उस प्रकार पीड़ित किये जाते हुए बुरी तरह रोते हैं । वे प्यास से पीड़ित होकर जब पानी माँगते हैं तब नरकपाल यह स्मरण कराते हुए कि- "तुमको मद्य बहुत प्रिय था" तपाया हुआ सीसा और ताँबा पीलाते हैं, उन्हें पीते हुए वे बहुत जोर से आर्त्तनाद करते हैं || २५ ॥ - - उद्देशकार्थोपसंहारार्थमाह - अब शास्त्रकार इस उद्देशक के अर्थ को समाप्त करते हुए कहते हैं अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाहमे पुव्वं सतसहस्से । चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, जहा कडं कम्म तहासि भारे छाया आत्मनाऽऽत्मानमिह वशयित्वा भवाधमान् पूर्वं शतसहस्रशः । तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणः, यथाकृतं कर्म तथाऽस्य भाराः ॥ अन्वयार्थ - ( इह ) इस मनुष्य भव में ( अप्पेण अप्पं वंचयित्ता) अपने आप ही अपने को वञ्चित करके (पुव्व सतसहस्से भवाहने) तथा पूर्व जन्म में सैंकड़ों और हजारोंबार लुब्धक आदि अधम भव को प्राप्त करके (बहुकूरकम्मा तत्था चिट्ठति) बहुक्रूर कर्मी जीव उस नरक में रहते हैं ( जहा कडं कम्म तहा सि भारे) पूर्व जन्म में जैसा कर्म जिसने किया है, उसके अनुसार ही उसे पीड़ा प्राप्त होती है । - ॥२६॥ भावार्थ - इस मनुष्य भव में थोड़े सुख के लोभ से अपने को जो वश्चित करते हैं, वे सैकड़ों और हजारों बार लुब्धक आदि नीच योनियों का भव प्राप्त करके नरक में निवास करते हैं। जिसने पूर्वजन्म में जैसा कर्म किया है, उसके अनुसार ही उसे पीड़ा प्राप्त होती है । - टीका 'अप्पेण' इत्यादि, 'इह' अस्मिन्मनुष्यभवे 'आत्मना' परवञ्चनप्रवृत्तेन स्वत एव परमार्थत आत्मानं वञ्चयित्वा 'अल्पेन' स्तोकेन परोपघातसुखेनात्मानं वञ्चयित्वा बहुशो भवानां मध्ये अधमा भवाधमाः - मत्स्यबन्धलुब्धकादीनां भवास्तान् पूर्वजन्मसु शतसहस्रशः समनुभूय तेषु भवेषु विषयोन्मुखतया सुकृतपराङ्मुखत्वेन चावाप्य महाघोरातिदारुणं नरकावासं 'तत्र' तस्मिन्मनुष्याः 'क्रूरकर्माणः ' परस्परतो दुःखमुदीरयन्तः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति, अत्र कारणमाह- ‘यथा' पूर्वजन्मसु यादृग्भूतेनाध्यवसायेन जघन्यजघन्यतरादिना कृतानि कर्माणि 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'से' तस्य नारकजन्तोः 'भारा' वेदनाः प्रादुर्भवन्ति स्वतः परत उभयतो वेति, तथाहि मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निना प्रताप्य भक्ष्यन्ते, तथा मांसरसपायिनो निजपूयरुधिराणि तप्तत्रपूणि च पाय्यन्ते, तथा मत्स्यघातकलुब्धकादयस्तथैव छिद्यन्ते भिद्यन्ते यावन्मार्यन्त इति, तथाऽनृतभाषिणां तत्स्मारयित्वा जिह्वाश्चेच्छिद्यन्ते, ( ग्रन्थाग्रम् ४००० ) तथा पूर्वजन्मनि परकीयद्रव्यापहरिणामङ्गोपाङ्गान्यपह्रियन्ते तथा पारदारिकाणां वृषणच्छेदः शाल्मल्युपगूहनादि च ते कार्यन्ते एवं महापरिग्रहारम्भवतां क्रोधमानमायालोभिनां च जन्मान्तरस्वकृतक्रोधादिदुष्कृतस्मारणेन तादृग्विधमेव दुःखमुत्पाद्यते, इतिकृत्वा सुष्ठुच्यते यथा वृत्तं कर्म तादृग्भूत एव तेषां तत्कर्मविपाकापादितो भार इति ॥ २६ ॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ इस मनुष्यभव में जो जीव दूसरे को वञ्चन करने में प्रवृत्त रहता है, वह वस्तुतः अपने आत्मा को ही वञ्चित करता है । वह दूसरे प्राणी का घातरूप अल्प सुख के लोभ से अपने आत्मा को वञ्चित करके बहुत भव करता हुआ सैंकड़ों और हजारों बार मच्छली पकड़नेवाले मल्लाह आदि तथा मृगवध करनेवाले व्याध आदि अधम जाति में जन्म लेता है । उन जन्मों में वह विषयलम्पट तथा पुण्य से विमुख होकर महाघोर और अति दारुण नरकस्थान को प्राप्त करता है । नरक में रहनेवाले क्रूरकर्मी जीव परस्पर एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हुए चिरकाल तक निवास करते हैं। इसका कारण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं- जिस जीव ने पूर्व जन्म में जैसे अध्यवसाय से नीच और उससे भी नीच कर्म किये हैं, उसी प्रकार की वेदना उस जीव को प्राप्त होती है । वह वेदना अपने आप भी होती है तथा दूसरे के द्वारा भी होती है और दोनों से भी होती है। जो पूर्व जन्म में माँसाहारी थे, उनको उनका ही माँस आग में पकाकर खिलाया जाता है तथा जो पूर्वजन्म में माँस का रस पीते ३१९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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