SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पश्चमाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा २५ छाया - यदि ते श्रुता लोहितपूयपाचिनी बालाग्निना तेजोगुणा परेण । कुम्भीमहत्यधिकपौरुषीया समुच्छ्रिता लोहितपूयपूर्णा ॥ अन्वयार्थ - ( लोहितपूयपाई) रक्त और पीब को पकानेवाली (बालागणी तेअगुणा परेणं) नवीन अग्नि के ताप के समान जिसका गुण है अर्थात् जो अत्यन्त तापयुक्त है ( महंता) बहुत बड़ी ( अहियपोरुसीया) तथा पुरुष प्रमाण से अधिक प्रमाणवाली (लोहियपुयपुण्णा) रक्त और पीब से भरी हुई (समूसिता) ऊँची (कुंभी जइ ते सुता) कुम्भी नामक नरक कदाचित् तुमने सुनी होगी । भावार्थ - रक्त और पीब को पकानेवाली तथा नवीन अग्नि के तेज से युक्त होने के कारण अत्यन्त तापयुक्त एवं पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाली, रक्त और पीब से भरी हुई कुम्भी नामक नरकभूमि कदाचित् तुमने सुनी होगी । टीका - पुनरपि सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य भगवद्वचनमाविष्करोति यदि 'ते' त्वया 'श्रुता' - आकर्णिता लोहितं - रुधिरं पूयं - रुधिरमेव पक्वं ते द्वे अपि पक्तुं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपाचिनी- कुम्भी, तामेव विशिनष्टि'बाल:' अभिनवः प्रत्यग्रोऽग्निस्तेन तेजः - अभितापः स एव गुणो यस्याः सा बालाग्नितेजोगुणा 'परेण' प्रकर्षेण तप्तेत्यर्थः, पुनरपि तस्या एव विशेषणं 'महती' बृहत्तरा अहियपोरुसीये' ति पुरुषप्रमाणाधिका 'समुच्छ्रिता' उष्ट्रिकाकृतिरूर्ध्वं व्यवस्थिता लोहितेन पूयेन च पूर्णा, सैवम्भूता कुम्भी समन्ततोऽग्निना प्रज्वलिताऽतीव बीभत्सदर्शनेति ||२४|| टीकार्थ - फिर सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से भगवान् का वचन कहते हैं- रक्त और पीब इन दोनों को पकाना जिसका स्वभाव है ऐसी कुम्भी नामक नारक भूमि कदाचित् तुमने सुनी होगी । उसी कुम्भी की विशेषता बताते हुए कहते हैं - नवीन अग्नि का जो तेज अर्थात् ताप है, वही उस कुम्भी का गुण है अर्थात् वह कुम्भी अत्यन्त ताप को धारण करती है। फिर भी उसी कुम्भी का विशेषण बतलाते हैं वह कुम्भी बहुत बड़ी है । वह पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाली है। वह ऊँट के समान आकारवाली ऊँची है । वह रक्त और पीब से भरी हुई है । ऐसी वह कुम्भी चारों तरफ आग से जलती हुई है और देखने में बड़ी घृणास्पद है ||२४|| - तासु च यत् क्रियते तद्दर्शयितुमाह उन कुम्भियों में जो किया जाता है, वह दिखाने के लिए कहते हैं पक्खिप्प तासुं पययंति बाले, अट्टस्सरे ते कलुणं रसंते । तण्हाइया ते तउतंबतत्तं, पज्जिज्जमाणाऽट्टतरं रसंति छाया नरकाधिकारः - प्रक्षिप्य तासु प्रपचन्ति बालान, आर्त्तस्वरान् तान् करुणं रसतः । तृष्णादितास्ते त्रपुताम्रतप्तं, पाठ्यमाना आर्तस्वरं रसन्ति ॥ ३१८ ।।२५।। अन्वयार्थ - ( तासु) रक्त और पीब से भरी हुइ उस कुम्भी में (बाले) अज्ञानी (अट्टस्सरे) आर्त्तनाद करते हुए (कलुणं रसंते) और करुण रोदन करते हुए नारकी जीवों को (पक्खिप्प) डालकर ( पययंति) नरकपाल पकाते हैं (तन्हाइया) प्यास से व्याकुल (ते) वे नारकी जीव नरकपालों के द्वारा (तउतंबतत्तं) गरम सीसा और ताँबा (पज्जिज्जमाणा) पिलाये जाते हुए (अट्टतरं रसंति) आर्त्तस्वर से रोदन करते हैं । भावार्थ - परमाधार्मिक, आर्त्तनादपूर्वक करुणक्रन्दन करते हुए अज्ञानी नारकी जीवों को रक्त और पीब से भरी हुई कुम्भी में डालकर पकाते हैं तथा प्यासे हुए उन बिचारों को सीसा और ताँबा गलाकर पिलाते हैं, इस कारण वे नारकी जीव और ज्यादा रोदन करते हैं । टीका- 'तासु' प्रत्यग्राग्निप्रदीप्तासु लोहितपूयशरीरावयवकिल्बिषपूर्णासु दुर्गन्धासु च 'बालान्' नारकांस्त्राणरहितान् आर्तस्वरान् करुणं - दीनं रसतः प्रक्षिप्य प्रपचन्ति, 'ते च' नारकास्तथा कदर्थ्यमाना विरसमाक्रन्दन्तस्तृडार्ताः सलिलं प्रार्थयन्तो मद्यं ते अतीव प्रियमासीदित्येवं स्मारयित्वा तप्तं त्रपु पाय्यन्ते, ते च तप्तं त्रपु पाय्यमाना आर्ततरं 'रसन्ति' रारटन्तीति ॥२५॥ टीकार्थ नवीन अग्नि के तेज के समान जलती हुई तथा रक्त, पीब और शरीर के अवयव तथा अशुचि
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy