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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा २३-२४
जिव्हां विनिष्कास्य वितस्तिमात्रां तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥
अन्वयार्थ - (बालस्स) निर्विवेकी नारकी जीव की (नक्क) नासिका को नरकपाल (खुरेण) उस्तरे से (छिंदति) काट लेते हैं । (उट्ठेवि) तथा उनके ओष्ठ ( दुवेवि कण्णे) और दोनों कान (छिंदंति) काट लेते हैं (विहत्थिमित्तं) तथा बीत्ताभर (जिब्धं) जीभ को (विणिक्कस्स) बाहर खींचकर ( तिक्खाहि सूलाहिं) उसमें तीक्ष्ण शूल चूभोकर (अभितावयंति) ताप देते हैं ।
भावार्थ - नरकपाल, निर्विवेकी नारकी जीवों की नासिका, ओष्ठ और दोनों कान तीक्ष्ण उस्तरे से काट लेते हैं तथा उनकी जीभ को एक बीत्ता [बारह अंगुल] बाहर खींचकर उसमें तीक्ष्ण शूल चूभोकर पीड़ा देते हैं ।
टीका ते परमाधार्मिकाः पूर्वदुश्चरितानि स्मारयित्वा 'बालस्य' अज्ञस्य - निर्विवेकस्य प्रायशः सर्वदा वेदनासमुद्-घोतोपगतस्य क्षुरप्रेण नासिकां छिन्दन्ति तथैौष्ठावपि द्वावपि कर्णौ छिन्दन्ति, तथा मद्यमांसरसाभिलिप्सोर्मृषाभाषिणो जिह्वां वितस्तिमात्रामाक्षिप्य तीक्ष्णाभिः शूलाभिः 'अभितापयन्ति अपनयन्ति इति ॥ २२ ॥ तथा
नरकाधिकारः
टीकार्थ वे परमाधार्मिक, पूर्व जन्म के पापों को स्मरण करा कर प्रायः सदा वेदना से युक्त निर्विवेकी नारकी जीव की नासिका को अस्तुरे से काट लेते हैं तथा उनके ओष्ठ और दोनों कान काट लेते हैं। तथा मद्य माँस और रस के लम्पट और मिथ्या भाषण करनेवाले जीव की जिह्वा को एक बीत्ता [बारह अंगुल] बाहर निकालकर उसे तीक्ष्ण शूल के द्वारा वेध करते हुए पीड़ा देते हैं ||२२||
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ते तिप्पमाणा तलसंपुडंव, राईदियं तत्थ थणंति बाला । गति ते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइया खारपइद्धियंगा
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छाया - ते तिप्यमानास्तालसंपुटा हव रात्रिंदिवं तत्र स्तनन्ति बालाः । गलन्ति ते शोणितपूयमासं प्रद्योतिताः क्षारप्रदिग्धाङ्गाः ॥
अन्वयार्थ – (तिप्पमाणा) जिनके अङ्गों से रक्त टपक रहा है, ऐसे (ते) वे नारकी (बाला) अज्ञानी (तलसंपुडंव) सूखे हुए ताल के पत्ते
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के समान (राईदियं ) रात दिन ( तत्थ) उस नरक में (थणंति) रोते रहते हैं (पज्जोइया) आग में जलाये जाते हुए (खारपइखियंगा) तथा अज्ञों मैं खार लगाये हुए (सोणिअपूयमंस) रक्त, पीब और माँस (गलंति) अपने अङ्गों से गिराते रहते हैं ।
॥२३॥
भावार्थ - वे अज्ञानी नारकी जीव अपने अङ्गों से रुधिर टपकाते हुए सूखे हुए तालपत्र के समान रात-दिन शब्द करते रहते हैं । तथा आग में जलाकर पीछे से अगों में खार लगाये गये हुए वे नारकी जीव रक्त, पीब और माँस का स्राव करते रहते हैं ।
टीका 'ते' छिन्ननासिकोष्ठजिह्वाः सन्तः शोणितं 'तिप्यमानाः ' क्षरन्तो यत्र - यस्मिन् प्रदेशे रात्रिंदिनं गमयन्ति, तत्र ‘बाला' अज्ञाः ‘तालसम्पुटा इव' पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव सदा "स्तनन्ति' दीर्घविस्वरमाक्रन्दन्तस्तिष्ठन्ति तथा 'प्रद्योतिता' वह्निना ज्वलिताः तथा क्षारेण प्रदिग्धाङ्गाः शोणितं पूयं मांसं चाहर्निशं गलन्तीति ॥२३॥ किञ्च
जइ ते सुता लोहितपूअपाई, बालागणीतेअगुणा परेणं । कुंभी महंताहियपोरसीया, समूसिता लोहियपूयपुण्णा
1. स्तनन्तो प्र० ।
टीकार्थ जिनके नाक, ओष्ठ और जिव्हा काट लिये गये हैं, ऐसे वे नारकी जीव, रक्त का स्राव करते हुए जिस स्थान में रात-दिन व्यतीत करते हैं, वहाँ वे अज्ञानी पवन प्रेरित सूखे तालपत्र के समान सदा जोर-जोर से रोते रहते हैं । तथा वे आग में जलाये और अङ्गों में खार लगाये हुए रात-दिन अपने अंगों से रक्त पीब और माँस का स्राव करते रहते हैं ||२३||
।।२४।।
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