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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २१-२२ नरकाधिकारः टीकार्थ - वे बिचारे नारकी जीव, नरकपालों के द्वारा मारे जाते हुए दूसरे अत्यन्त घोर नरक में (नरक के एक देश में) जाते हैं। वह नरक कैसा है ? वह विष्ठा, रक्त, और माँस आदि अपवित्र पदार्थों से तथा अत्यन्त सन्ताप से युक्त है, ऐसे नरक में अपने कर्म पाश में बँधे हुए नारकी जीव, अशुचि आदि पदार्थों का भक्षण करते हुए चिर काल तक निवास करते हैं । तथा वे नरकपालों के द्वारा उत्पन्न किये हुए कीड़ों के द्वारा और आपस में एक दूसरे के द्वारा प्रेरित कीड़ों के द्वारा अपने कर्म वशीभूत होकर काटे जाते हैं । इस विषय में आगम कहता है कि "छट्ठी" इत्यादि, अर्थात् नारकी जीव, छट्ठी और सातवीं नरक भूमि में अत्यन्त बड़ा रक्त का कुन्थु (कीड़ा) रूप बनाकर परस्पर एक दूसरे के शरीर का हनन करते हैं ॥२०॥ सया कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म । अंदूसु पक्खिप्प विहत्तु देहं, वेहेण सीसं सेऽभितावयंति ॥२१॥ छाया - सदा कृत्स्नं पुनर्घर्मस्थानं, गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् । अब्दूषु प्रक्षिप्य विहृत्य देहं वेधेन शीर्ष तस्यामितापयन्ति ।। अन्वयार्थ - (सया कसिणं पुण धम्मठाणं) नारकी जीवों के रहने का सम्पूर्ण स्थान सदा उष्ण प्रथम तृतीय नरक तक होता है (गाढोवणीयं) और वह स्थान (निधत्त निकाचित रूप कर्मों के द्वारा) नारकी जीवों को प्राप्त हुआ है। (अतिदुक्खधम्म) अत्यन्त दुःख देना उस स्थान का धर्म है। (अंदूसु पक्खिप्प) नरकपाल नारकी जीवों के शरीर को बेड़ी में डालकर (देहं विहत्तु) तथा उनके मस्तक में (वेहेन) छिद्र करके (अभितावयंति) पीड़ित करते हैं। भावार्थ - नारकी जीवों के रहने का स्थान तृतीय नरक तक सम्पूर्ण सदा गरम रहता है । वह स्थान निधत्त निकाचित आदि कर्मों के द्वारा नारकी जीवों ने प्राप्त किया है। उस स्थान का स्वभाव अत्यन्त दुःख देना है । उस स्थान में नारकी जीवों के शरीर को तोड़ मरोड़कर तथा उनको बेड़ी बन्धन में डाल एवं उनके शिर में छिद्र करके नरकपाल उन्हें पीड़ित करते हैं। टीका - 'सदा' सर्वकालं 'कृत्स्नं' संपूर्णं पुनः तत्र नरके 'घर्मप्रधानं' उष्णप्रधानं स्थिति:-स्थानं नारकाणां भवति, तत्र हि प्रलयातिरिक्ताग्निना वातादीनामत्यन्तोष्णरूपत्वात्, तच्च दृढैः-निधत्तनिकाचितावस्थैः कर्मभिर्नारकाणाम् 'उपनीतं' ढौकितं, पुनरपि विशिनष्टि-अतीव दुःखम्-असातावेदनीयं धर्मः-स्वभावो यस्य तत्तथा तस्मिंश्चैवंविधे स्थाने स्थितोऽसुमान् 'अन्दूषु' निगडेषु देहं विहत्य प्रक्षिप्य च तथा शिरश्च 'से' तस्य नारकस्य 'वेधेन' रन्ध्रोत्पादनेनाभितापयन्ति कीलकैश्च सर्वाण्यप्यङ्गानि वितत्य चर्मवत् कीलयन्ति इति ॥२१॥ अपि च टीकार्थ - नारकी जीवों के रहने का स्थान ततीय नरक तक सदा उष्णप्रधान होता है। वहाँ प्रत की अग्नि से भी ज्यादा वायु आदि गर्म होते हैं, वह नरक का स्थान, निधत्त और निकाचित्त अवस्थावाले कर्मों के द्वारा नारकी जीवों को प्राप्त हुआ है। फिर भी नरक की विशेषता बतलाते हैं, वह नरक स्थान अत्यन्त दुःख यानी असाता वेदनीय स्वभाववाला है। ऐसे नरक स्थान में स्थित प्राणियों के देह को तोड़ मरोड़कर बेड़ी में डालकर उसके शिर में छिद्र करके नरकपाल पीड़ा देते हैं । तथा उस जीव के अङ्गों को फैलाकर उनमें इस प्रकार कील ठोकते हैं, जैसे चमड़े को फैलाकर उसमें कील ठोकते हैं ॥२१॥ छिंदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उद्वेवि छिदंति दुवेवि कण्णे । जिब्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्खाहिं सूलाहिऽभितावयंति छाया- छिब्दन्ति बालस्य क्षुरेण नासिकामोष्ठी च छिब्दन्ति द्वावपि कर्णो । ॥२२॥ ३१६
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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