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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सूत्र ४
षोडशं श्रीगाथाध्ययनम् सम्यग् वेत्ति, धर्मं च सम्यग् जानानो यत्करोति तद्दर्शयति-नियागो - मोक्षमार्गः सत्संयमो वा तं सर्वात्मना भावतः प्रतिपन्नः नियागपडिवन्नोत्ति, तथाविधश्च यत्कुर्यात् तदाह - 'समि (म) यं'ति समतां समभावरूपां वासीचन्दनकल्पां 'चरेत्' सततमनुतिष्ठेत् । किंभूतः सन् ?, आह- दान्तो द्रव्यभूतो व्युत्सृष्टकायश्च, एतद्गुणसमन्वितः सन् पूर्वोक्तमाहनश्रमणभिक्षुशब्दानां यत् प्रवृत्तिनिमितं तत्समन्वितश्च निर्ग्रन्थ इति वाच्यः । तेऽपि माहनादयः शब्दा निर्ग्रन्थशब्दप्रवृत्तिनिमित्ताविनाभाविनो भवन्ति, सर्वेऽप्येते भिन्नव्यञ्जना अपि कथञ्चिदेकार्था इति ॥४॥
साम्प्रतमुपसंहारार्थमाह-सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिप्रभृतीनुद्दिश्येदमाह - 'से' इति तद्यन्मया कथितमेवमेव जानी यूयं नान्यो मद्वचसि विकल्पो विधेयः यस्मादहं सर्वज्ञाज्ञया ब्रवीमि । न च सर्वज्ञा भगवन्तः परहितैकरता भयात्वातारो रागद्वेषमोहान्यतरकारणाभावादन्यथा ब्रुवते, अतो यन्मयाऽऽदीतः प्रभृति कथितं तदेवमेवावगच्छतेति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे। ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः ते च नैगमादयः सप्त, नैगमस्य सामान्यविशेषात्मकता संग्रहव्यवहार-प्रवेशात्संग्रहादयः षट्, समभिरूढेत्थंभूतयोः शब्दनयप्रवेशान्नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दाः पञ्च, नैगमस्याप्यन्तर्भावाच्चत्वारो, व्यवहारस्यापि सामान्यविशेषरूपतया सामान्यविशेषात्मनोः संग्रहर्जुसूत्रयोरन्तर्भावात्संग्रहर्जु - सूत्रशब्दास्त्रयः ते च द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकान्तर्भावाद्द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकाभिधानौ द्वौ नयौ, यदिवा सर्वेषामेव ज्ञानक्रिययोरन्तर्भावात् ज्ञानक्रियाभिधानौ द्वौ, तत्रापि ज्ञाननयो ज्ञानमेव प्रधानमाह, क्रियानयश्च क्रियामिति । नयानां च प्रत्येकं मिथ्यादृष्टित्वाज्ज्ञान परस्परापेक्षितया मोक्षाङ्गत्वादुभयमत्र प्रधानं तच्चोभयं सत्क्रियोपेते साधौ भवतीति, तथा चोक्तम्"म्म गिवे अगिण्डियव्वंमि चेव अत्यंमि । जइयव्वमेव इति जो उवएसो सो नओ नाम ||१|| सव्वेसिंपि णयाणं बहुविहवत्तव्वयं णिसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ||२||"
त्ति, समाप्तं च गाथाख्यं षोडशमध्ययनं तत्समाप्तौ च समाप्तः प्रथमः श्रुतस्कन्ध इति ॥ [ ग्रन्थाग्रम् ८१०६ ] टीकार्थ जो पुरुष एक है यानी रागद्वेष रहित होने के कारण अकेला है अथवा इस संसार रूपी चक्र में प्राणी अकेले ही अपने पुण्य-पाप का फल भोगते हुए घूमते हैं, वे अकेले ही परलोक में जाते हैं, इसलिए वे अकेले ही हैं । साधु उत्कृष्ट विहारी हैं, वे द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार से अकेले रहते हैं परन्तु गच्छ में रहनेवाले साधु कारण पाकर द्रव्य से अकेले भी रह सकता हैं । परन्तु वे भी भाव से तो अकेले ही हैं । तथा "यह आत्मा अकेला ही परलोक में जाता है" यह जो जानता है तथा "मुझे कोई भी दुःख से रक्षा करनेवाला सहायक नहीं है" ऐसा जो जानता है अथवा संसार का सच्चा स्वरूप एकान्तरूप से जानने के कारण जिनेन्द्र का शासन ही सत्य है, दूसरे शासन सत्य नहीं, यह जो जानता है, अथवा संयम या मोक्ष को एक कहते हैं, उसे जो जानता है, जो वस्तुस्वरूप को जाननेवाला है तथा जिसने कर्म के आश्रव द्वारों को रोककर अपने भावस्रोतों का छेदन किया है तथा कछुए के समान जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों को खींचकर वश कर रखा है तथा निरर्थक शरीर की क्रिया नहीं करता है एवं जो पाँच समितियों से युक्त रहकर ज्ञान आदि मोक्षमार्ग को प्राप्त है, जो शत्रु और मित्र में समभाव रखता है, तथा "यह जीव उपयोगरूप है और इसके असंख्यात प्रदेश हैं, यह संकोच और विकाश से युक्त है, वह अपने किये हुए कर्म का फल भोगता है, वह प्रत्येक और साधारण शरीर में अलग-अलग स्थित है, वह द्रव्यरूप से नित्य और पर्य्यायरूप से अनित्य है, वह अनन्तधर्मवाला है" ऐसी व्याख्या को आत्मवाद कहते हैं, उसको जिसने प्राप्त किया है अर्थात् जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है, तथा जो समस्त पदार्थों के स्वभाव को ठीक ठीक जानता हुआ, उन्हें विपरीतरूप से नहीं जानता है, ( इन गुणों के कहने से, जो लोग यह कहते हैं कि-'एक ही आत्मा सब पदार्थों का स्वभाववाला होने के कारण विश्वव्यापी है । वह श्यामाक के दाने के बराबर है अथवा अँगूठे के पर्व के बराबर है" इत्यादि उनकी मिथ्याअर्थ की मान्यता हटाई गई है क्योंकि एक ही आत्मा विश्वव्यापी 1. तेऽपि च । 2. फलसाधकं, अन्यथा प्रमाणवाक्यतापातात् । 3. ज्ञातो ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये चैवार्थे यतितव्यमेवेति य उपदेशः स नयो नाम ||१|| 4. सर्वेषामपि नयानां बहुविधां वक्तव्यतां निशम्य तत्सर्वनयविशुद्धं यच्चरणगुणस्थितः साधुः ||१||
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