________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सूत्र ४
षोडशं श्रीगाथाध्ययनम् विद्वान् द्विधाऽपि सोतः परिच्छिलः नो पूजासत्कारलाभार्थी धर्मविद् नियागप्रतिपन्नः समतां चरेद् दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः निग्रन्थ इति वाच्यः ।४ तदेवमेव जानीत यदहं भयत्रातारः । इति ब्रवीमि ।
अन्वयार्थ - (एत्थवि) भिक्षु के गुण भी निर्ग्रन्थ में होने चाहिए तथा (एगे) जो रागद्वेष से रहित होकर रहता है (एगविऊ) यह आत्मा अकेला ही परलोक में जाता है, यह जो जानता है (बुद्ध) जो वस्तुस्वरूप को जानता है (संच्छिन्नसोए) जिसने आश्रव द्वारों को रोक दिया है (सुसंजते) जो बिना प्रयोजन अपने शरीर की क्रिया नहीं करता है अथवा जो अपनी इन्द्रिय और मन को वश में रखता है (सुसमिते) जो पांच प्रकार की समितियों से युक्त है (सुसामाइए) जो शत्रु और मित्र में समभाव रखता है (आयवायपत्ते) जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानता है (विऊ) जो समस्त पदार्थों के स्वभाव को जानता है (दुहओवि सोयपलिच्छिन्ने) जो द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार से संसार में जाने के स्रोत यानी मार्ग को छेदन किया हुआ है (णो पूयासक्कारलाभट्ठी) जो पूजा, सत्कार और लाभ की इच्छा नहीं रखता है (धम्मट्ठी) किन्तु धर्म की इच्छा रखता है (धम्मविऊ) जो धर्म को जानता है (णियागपडिवन्ने) जो मोक्ष मार्ग को प्राप्त है (समियं चरे) वह समभाव से विचरे (दंते दविए वोसट्टकाए णिग्गंथेत्ति वच्चे) उक्त गुणों से युक्त जो पुरुष जितेन्द्रिय, मुक्ति जाने योग्य तथा शरीर का व्युत्सर्ग किया हुआ है, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए (से एव मेव जाणह जमहं) सो आप लोग इसी तरह समझें जैसा हमने कहा है (भयंतारो) क्योंकि भय से जीवों की रक्षा करनेवाले सर्वज्ञ अन्यथा नहीं कहते हैं।
भावार्थ- पूर्वसूत्र में भिक्षु के जितने गुण बताये हैं, वे सभी निर्ग्रन्थ में भी होने चाहिए । इसके सिवाय ये गुण भी निर्ग्रन्थ में आवश्यक हैं-जो पुरुष रागद्वेष रहित है और "यह आत्मा परलोक में अकेली ही जाती है" यह जानता है तथा जो पदार्थों के स्वभाव को जाननेवाला और आश्रवद्वारों को रोककर रखनेवाला है, जो प्रयोजन के बिना अपने शरीर की कोई क्रिया नहीं करता है अथवा इन्द्रिय और मन को वश में रखता है, जो पांच प्रकार की समितियों से युक्त रहकर शत्रु और मित्र में समभाव रखता है, तथा जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप को जाननेवाला विद्वान् है, एवं जिसने संसार में उतरने के मार्ग को द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार से छेदन किया है, तथा पूजा, सत्कार और लाभ की इच्छा न रखता हुआ केवल धर्म की इच्छा रखता है, जो धर्म के तत्त्व को जाननेवाला और मोक्षमार्ग को प्रास है, उसे समभाव से विचरना चाहिए । इस प्रकार जो जितेन्द्रिय, मुक्ति जाने योग्य और शरीर का व्युत्सर्ग किया हुआ है, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं कि- यह मैने तीर्थकर देव से सुनकर आप लोगों से जो कहा है सो आप सत्य समझें क्योंकि जगत् की भय से रक्षा करनेवाले श्री तीर्थकर देव अन्यथा उपदेश नहीं करते हैं।
टीका - ‘एको' रागद्वेषरहिततया ओजाः, यदिवाऽस्मिन् संसारचक्रवाले पर्यटन्नसुमान् स्वकृतसुखदुःखफलभाक्त्वेनैकस्यैव परलोकगमनतया सदैकक एव भवति । तत्रोद्यतविहारी द्रव्यतोऽप्येकको भावतोऽपि, गच्छान्तर्गतस्तु कारणिको द्रव्यतो भाज्यो भावतस्त्वेकक एव भवति । तथैवमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीत्येकवित्, न मे
दुःख-परित्राणकारी सहायोऽस्तीत्येवमेकवित, यदिवैकान्तविद्-एकान्तेन विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेत्तीत्येकान्तवित्, अथवैको-मोक्षः संयमो वा तं वेत्तीति, तथा बुद्धः-अवगततत्त्वः सम्यक् छिन्नानि-अपनीतानि भावस्रोतांसि-संवृतत्वात्कर्माश्रवद्वाराणि येन स तथा, सुष्टु संयतः-कूर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककायक्रियारहितः सुसंयतः, तथा सुष्ठु पञ्चभिः समितिभिः सम्यगितः-प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ सुसमितः, तथा सुष्टु समभावतया सामायिकं-समशत्रुमित्रभावो यस्य स सुसामायिकः । तथाऽऽत्मनः-उपयोगलक्षणस्य जीवस्यासंख्येयप्रदेशात्मकस्य संकोचविकाशभाजः स्वकृतफलभुजः प्रत्येकसाधारणशरीरतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनन्त-धर्मात्मकस्य वा वाद आत्मवादस्तं प्राप्त आत्मवादप्राप्तः, सम्यग्यथावस्थितात्मस्वतत्त्ववेदीत्यर्थः । तथा 'विद्वान्' अवगतसर्वपदार्थस्वभावो न व्यत्ययेन पदार्थानवगच्छति । ततो यत् कैश्चिदभिधीयते, तद्यथा-एक एवात्मा सर्वपदार्थस्वभावतया विश्वव्यापी श्यामाकतण्डुलमात्रोऽङ्गुष्ठपर्वपरिमाणो वेत्यादिकोऽसद्भूताभ्युपगमः परिहतो भवति, तथाविधात्मसद्धावप्रतिपादकस्य प्रमाणस्याभावादित्यभिप्रायः । तथा 'द्विधाऽपी'ति द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यस्रोतांसि यथास्वं विषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तयः भावस्रोतांसि तु शब्दादिष्वेवानुकूलप्रतिकूलेषु रागद्वेषोद्भवास्तान्युभयरूपाण्यपि स्रोतांसि संवृतेन्द्रियतया रागद्वेषाभावाच्च परिच्छिन्नानि येन स परिच्छिन्नस्रोताः, तथा नो पूजासत्कारलाभार्थी किन्तु निर्जरापेक्षी सर्वास्तपश्चरणादिकाः क्रिया विदधाति, एतदेव दर्शयति-धर्म:-श्रुतचारित्राख्यस्तेनार्थः स एव वाऽर्थो धर्मार्थः स विद्यते यस्यासौ धमार्थीति, इदमुक्तं भवति-न पूजाद्यर्थं क्रियासु प्रवर्तते अपितु धर्मार्थीति । किमिति ?, यतो धर्म यथावत्तत्फलानि च स्वर्गावाप्तिलक्षणानि
६३२