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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सूत्र २ षोडशं श्रीगाथाध्ययनम् साम्प्रतं श्रमणशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमुद्भावयन्नाह - अब शास्त्रकार श्रमण शब्द का अर्थ बताते हुए कहते हैं एत्थवि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिज्जं च दोसं च इच्चेव जओ जओ आदाणं अप्पणो पद्दोसहेऊ तओ तओ आदाणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाया सिआदते दविए वोसट्टकाए समणेत्ति वच्चे ॥२॥ छाया - अत्रापि श्रमणोऽनिश्रितोऽनिदानः आदानञ्चातिपातञ्च मृषावादश बहिद्धश क्रोधश मानञ्च मायाश लोभञ्च प्रेमं च इत्येव यतो यत आदानमात्मनः प्रद्वेषहेतून् ततस्तत आदानात् पूर्वं प्रतिविरतः प्राणातिपातात् स्याद् दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकाय: श्रमण इति वाच्यः । अन्वयार्थ - ( एत्थवि समणे) जो साधु पूर्वोक्त गुण समूह में वर्तमान है, उसे श्रमण भी कहना चाहिए (अणिस्सिए अणियाणे) जो शरीर आदि में आसक्त नहीं है तथा जो किसी भी सांसारिक फल की कामना नहीं करता हैं ( अतिवायं च मुसावायं च ) एवं किसी प्राणी का घात नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है (बहिद्धं च) मैथुन और परिग्रह नहीं करता है (कोहं च मायं च माणं च लोहं च पिज्जं च दोसं च) क्रोध, मान, माया और लोभ तथा प्रेम और द्वेष नहीं करता है (इच्चेव जओ जओ आदाणं अप्पणो पद्दोसहेऊ ) इसी प्रकार जिन जिन बातों से इस लोक और परलोक में अपनी हानी दीखती है तथा जो जो अपने आत्मा के द्वेष के कारण हैं (तओ तओ पाणाइवाया आदाणातो पुव्वं पडिविरते) उनउन प्राणातिपात आदि कर्मबन्ध के कारणों से पहले ही जो निवृत्त है (दंते दविए वोसठकाए समणेत्ति वच्चे सिया) तथा जो इन्द्रियजयी, मुक्ति जाने योग्य और शरीर के परिशोधन से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिए । भावार्थ जो साधु पूर्वोक्त गुणों से युक्त होकर शरीर आदि में आसक्त न रहता हुआ अपने तप आदि का सांसारिक सुख आदि फल की कामना नहीं करता है एवं प्राणातिपात नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मैथुन और परिग्रह नहीं करता है क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष नहीं करता है तथा जिन-जिन काय्यों से कर्म बन्ध होता है अथवा आत्मा द्वेष का पात्र बनता है उन-उनसे निवृत्त होकर इन्द्रियों का विजय करता है एवं मुक्ति जाने की योग्यता प्राप्त करके शरीर का परिशोधन नहीं करता है, उसे श्रमण कहना चाहिए । - टीका - अत्राप्यनन्तरोक्ते विरत्यादिके गुणसमूहे वर्तमानः श्रमणोऽपि वाच्यः, एतद्गुणयुक्तेनापि भाव्यमित्याहनिश्चयेनाधिक्येन वा 'श्रितो' निश्रितः न निश्रितोऽनिश्रितः - क्वचिच्छरीरादावप्यप्रतिबद्धः, तथा न विद्यते निदानमस्येत्यनिदानो - निराकाङ्क्षोऽशेषकर्मक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत, तथाऽऽदीयते - स्वीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानंकषायाः परिग्रहः सावद्यानुष्ठानं वा, तथाऽतिपातनमतिपातः, प्राणातिपात इत्यर्थः, तं च प्राणातिपातं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेद् एवमन्यत्रापि क्रिया योजनीया । तथा मृषा-अलीको वादो मृषावादस्तं च, तथा 'बहिद्धं ति मैथुनपरिग्रहौ तौ च सम्यक् परिज्ञाय परिहरेत् । उक्ता मूलगुणाः, उत्तरगुणानधिकृत्याह- क्रोधम्-अप्रीतिलक्षणं मानंस्तम्भात्मकं मायां च - परवञ्चनात्मिकां लोभं - मूर्च्छास्वभावं तथा प्रेम-अभिष्वङ्गलक्षणं तथा द्वेषंस्वपरात्मनोर्बाधारूपमित्यादिकं संसारावतरणमार्गं मोक्षाध्वनोऽपध्वंसकं सम्यक् परिज्ञाय परिहरेदिति । एवमन्यस्मादपि यतो यतः कर्मोपादानाद् - इहामुत्र चानर्थहेतोरात्मनोऽपायं पश्यति प्रद्वेषहेतूंश्च ततस्तत: प्राणातिपातादिकादनर्थदण्डादादानात् पूर्वमेव-अनागतमेवात्महितमिच्छन् प्रतिविरतो भवेत्-सर्वस्मादनर्थहेतुभूतादुभयलोकविरुद्धाद्वा सावद्यानुष्ठानान्मुमुक्षुर्विरतिं कुर्यात् । यश्चैवंभूतो दान्तः शुद्धो द्रव्यभूतो निष्प्रतिकर्मतया व्युत्सृष्टकायः स श्रमणो वाच्यः ||२|| टीकार्थ - पूर्वोक्त विरति आदि गुणसमूह में वर्तमान साधु को श्रमण भी कहना चाहिए । श्रमण बनने के लिए आगे कहे जानेवाले गुण भी होने चाहिए, यह शास्त्रकार कहते हैं- जो पुरुष शरीर आदि किसी पदार्थ में बहुत अधिक आसक्त रहता है, उसे निश्रित कहते हैं परन्तु ऐसा न होकर जो शरीर आदि किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं है, उसे अनिश्रित कहते हैं । तथा जो निदान नहीं करता है अर्थात् जो दूसरे पदार्थ की इच्छा को छोड़कर कर्मक्षय के लिए संयम का अनुष्ठान करता है ( उसे श्रमण कहना चाहिए) जिससे आठ प्रकार के कर्म बाँधे जाते ६२९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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