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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सूत्र १
षोडशं श्रीगाथाध्ययनम्
टीकार्थ अथ शब्द ग्रन्थ के अन्त में मङ्गल के लिए है। आदि मङ्गल तो "बुध्येत" इस शब्द के द्वारा कहा गया है । इस प्रकार आदि और अन्त के मङ्गल होने से समस्त श्रुतस्कन्ध मङ्गल है, यह सूचित होता है। अथवा 'अथ' शब्द आनन्तर्य्य अर्थ में आया है । पन्द्रह अध्ययन के पश्चात् उनके अर्थों को संग्रह करनेवाला यह सोलहवाँ अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है । इसके पश्चात् उत्पन्न दिव्य ज्ञानवाले भगवान् देवता और मनुष्यों से भरी हुई सभा में आगे कही जानेवाली बात कहते हैं-पन्द्रह अध्ययनों में जो उपदेश किया गया है, उसके अनुसार आचरण करता हुआ जो साधु इन्द्रिय और मन को दमन करने के कारण दान्त है तथा मुक्ति जाने के योग्य होने से द्रव्यभूत है अथवा भव्य अर्थ में द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है, इस वचन के अनुसार उत्तम जाति के सुवर्ण की तरह रागद्वेष के समय होनेवाले अपद्रव्य यानी बुराईयों से रहित होने के कारण जो शुद्ध द्रव्यभूत है तथा शरीर का प्रतिकर्म न करने के कारण जो शरीर को व्युत्सर्ग किया हुआ है, इस प्रकार जो पूर्वोक्त अध्ययनों में कहे हुए अर्थो में दवाले प्राणियों को हनन नहीं करता है, उस गुप्त जो साधु पूर्वोक्त गुण समूह से युक्त है,
वर्तमान होकर स्थावर, जङ्गम, सूक्ष्म, बादर, पर्य्याप्त और अपर्य्याप्त साधु को माहन कहना चाहिए । अथवा ब्रह्मचर्य की नवगुप्तियों उसे माहन या ब्राह्मण कहना चाहिए । तथा तपस्या में वह परिश्रम करता है, इसलिए उसे श्रमण कहना चाहिए अथवा उसका मन मित्र आदि में सर्वत्र समान होता है इसलिए उसे सममना कहना चाहिए । वह वासी चन्दन के समान है, अत एव कहा है कि उसका कोई भी शत्रु नहीं है । इस प्रकार पूर्वोक्त गुणों से युक्त पुरुष को श्रमण या सममना कहना चाहिए। तथा जो भिक्षणशील है अथवा आठ प्रकार के कर्मों को भेदन करता है, वह भिक्षु है, अतः इन्द्रिय दमन आदि गुणों से युक्त उस साधु को भिक्षु कहना चाहिए । उस साधु की बाह्य तथा आभ्यन्तर की ग्रन्थियाँ नष्ट हो गयी हैं इसलिए उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए । इस प्रकार जो साधु पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में कहे हुए अर्थों का अनुष्ठान करता हुआ दान्त द्रव्यभूत और व्युत्सृष्टकाय है, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए। इस प्रकार भगवान् के कहने पर उनका शिष्य पूछता है - हे भगवन् ! अथवा हे कल्याणकारिन् ! अथवा हे भय के नाशक ! अथवा हे संसार का नाश करनेवाले ! जो वह पुरुष दान्त, द्रव्यभूत और व्युत्सृष्टकाय होकर ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु अथवा निर्ग्रन्थ कहने योग्य है सो यह कैसे ?। आपने जो ऐसे साधु को ब्राह्मण आदि शब्दों से कहने योग्य कहा है, सो कैसे ? यह हम को आप बतावें । हे महामुने ! आप त्रिकालदर्शी हैं। इस प्रकार शिष्य के पूछने पर भगवान् कथंचित् भेद रखनेवाले ब्राह्मण आदि चार शब्दों का अर्थ क्रमशः कहने लगे । जो साधु पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में कहे हुए अर्थ के अनुसार आचरण करता हुआ सावद्यानुष्ठानरूप सभी पापकर्मों से निवृत्त रहता है, तथा प्रियवस्तु में प्रेमरूप राग और अप्रिय में अप्रीतिरूप द्वेष, परस्पर अधिकरणरूप कलह, दूसरे पर झूठा कलङ्क लगानेरूप अभ्याख्यान, दूसरे के गुणों को नहीं सहन कर सकते हुए उसकी चुगुली करनेरूप पैशुन्य, तथा दूसरे की निन्दा करनेरूप परपरिवाद एवं संयम से उद्विग्न होने रूप अरति तथा विषय में स्नेहरूप रति और परवञ्चनरूप माया एवं अतत्त्व को तत्त्व अथवा तत्त्व को अतत्त्व समझनेरूप मिथ्यादर्शन जैसे कि जगत् में कोई पदार्थ नहीं है तथा कोई भी नित्य नहीं है, न कोई कर्म करता है और न कोई कर्म का फल भोगता है, मोक्ष कोई पदार्थ नहीं है और उसकी प्राप्ति का कोई उपाय नहीं है, ये छ: मिथ्यात्व के स्थान हैं इत्यादि, ये सब शल्य के समान हैं इसलिए इनसे जो निवृत्त है तथा पाँच प्रकार की समितियों से युक्त रहता हुआ जो परमार्थभूत वस्तु के सहित है अथवा ज्ञानादिगुणों से युक्त है एवं जो सदा सत्संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त है, उसे अपने अनुष्ठान को कषायों के द्वारा मलिन नहीं करना चाहिए, इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि जो अपकारी के ऊपर भी क्रोध नहीं करता है, किसी के गाली आदि देने पर भी क्रोध के वश नहीं होता है तथा उत्कृष्ट तपस्या करता हुआ भी अभिमान नहीं करता है, जैसा कि कहा है
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आठ प्रकार के मानों को मथन करनेवाले पुरुष जब कि निर्जरा का मद भी नहीं करते हैं, तब फिर दूसरे मदस्थानों के त्याग की तो बात ही क्या है ? वे तो प्रयत्नपूर्वक छोड़ देने चाहिए ।
पूर्वोक्त गुण उपलक्षण मात्र हैं, इसलिए माया और लोभस्वरूप राग भी नहीं करना चाहिए, इस प्रकार पूर्वोक्त गुणों से युक्त जो साधु है, उसको निःशंक माहन कहना चाहिए ||१||
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