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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रस्तावना
षोडशं श्रीगाथाध्ययनम्
॥ अथ षोडशं श्रीगाथाध्ययनं प्रारभ्यते ॥
उक्तं पञ्चदशमध्ययनं, साम्प्रतं षोडशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तरोक्तेषु पञ्चदशस्वप्यध्ययननेषु येऽर्था अभिहिता विधिप्रतिषेधद्वारेण तान् तथैवाचरन् साधुर्भवतीत्येतदनेनोपदिश्यते, ते चामी अर्थाः, तद्यथाप्रथमाध्ययने स्वसमयपरसमयपरिज्ञानेन सम्यक्त्वगुणावस्थितो भवति, द्वितीयाध्ययने ज्ञानादिभिः कर्मविदारणहेतुभिरष्टप्रकारं कर्म विदारयन् साधुर्भवति तथा तृतीयाध्ययने यथाऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गान् सम्यक् सहमान: साधुर्भवति, चतुर्थे तु स्त्रीपरीषहस्य दुर्जयत्वात्तज्जयकारीति, पञ्चमे तु नरकवेदनाभ्यः समुद्विजमानस्तत्प्रायोग्यकर्मणो विरतः सन्साधुत्वमवाप्नुयात्, षष्ठे तु यथा श्रीवीरवर्धमानस्वामिना कर्मक्षयोद्यतेन चतुर्ज्ञानिनाऽपि संयमं प्रति प्रयत्नः कृतस्तथाऽन्येनापि छद्मस्थेन विधेय इति, सप्तमे तु कुशीलदोषान् ज्ञात्वा तत्परिहारोद्यतेन सुशीलावस्थितेन भाव्यम्, अष्टमे तु बालवीर्यपरिहारेण पण्डितवीर्योद्यतेन सदा मोक्षाभिलाषिणा भाव्यं, नवमे तु यथोक्तं क्षान्त्यादिकं धर्ममनुचरन् संसारान्मुच्यत इति, दशमे तु संपूर्णसमाधियुक्तः सुगतिभाग्भवति, एकादशे तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यं सन्मार्गं प्रतिपन्नोऽशेषक्लेशप्रहाणं विद्यते, द्वादशे तु तीर्थिकदर्शनानि सम्यग्गुणदोषविचारणतो विजानन्न तेषु श्रद्धानं विद्यत्ते, त्रयोदशे तु शिष्यगुणदोषविज्ञः सद्गुणेषु वर्तमानः कल्याणभाग्भवति, चतुर्दशे तु प्रशस्तभावग्रन्थभावितात्मा विस्रोतसिकारहितो भवति, पञ्चदशे तु यथावदायतचारित्रो भवति भिक्षुस्तदुपदिश्यत इति । तदेवमनन्तरोक्तेषु पञ्चदशस्वध्ययनेषु येऽर्थाः प्रतिपादितास्तेऽत्र संक्षेपतः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्युपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽनन्तरमेव संबन्धप्रतिपादनेनैवाभिहितः । नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे गाथाषोडशकमिति नाम । तत्र गाथानिक्षेपार्थं निर्युक्तिकृदाह
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पन्द्रहवाँ अध्ययन कहा जा चुका अब सोलहवाँ आरम्भ किया जाता है। इसका पूर्व अध्ययनों के साथ सम्बन्ध यह है - पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में विधि निषेध के द्वारा जो अर्थ कहे गये हैं, उनका उसी तरह आचरण करता हुआ पुरुष साधु होता है, यह इस अध्ययन के द्वारा उपदेश किया जाता है, पूर्वोक्त अध्ययनों में कहे हुए अर्थ ये हैं-प्रथम अध्ययन में कहे हुए स्वसमय और पर समय के ज्ञान से जीव सम्यक्त्वगुण में स्थिर होता है तथा दूसरे अध्ययन में कहे हुए कर्म को विदारण करनेवाले ज्ञान आदि के द्वारा आठ प्रकार के कर्मों को विदारण करता हुआ जीव, साधु होता है एवं तृतीयाध्ययन में कहे हुए अनुकूल और प्रतिकूल उपसगों को सहन करता हुआ पुरुष साधु होता है । चौथे अध्ययन में कहा है कि- स्त्रीपरीषह दुःख से सहन करने योग्य है इसलिए जिसने स्त्रीपरीषह को सहन कर लिया है, वही साधु है । पञ्चम अध्ययन में कही हुई नरक की पीड़ा को सुनकर उससे डरता हुआ पुरुषं नरक देनेवाले कर्मों का त्याग कर साधुता को प्राप्त कर सकता है । छट्ठे अध्ययन में कहा, है कि- चार ज्ञान के धनी होते हुए भी श्रीमहावीर वधमीन स्वामी ने कर्मों को क्षय करने के लिए उद्यत होकर जो संयमपालन में प्रयत्न किया है, वह दूसरे छद्मस्थों को भी करना चाहिए । सप्तम अध्ययन में कहा है किकुशील के दोषों को जानकर उनके त्याग के लिए उद्यत पुरुष को सुशील के पास स्थित होना चाहिए । अष्टम अध्ययन में कहा है कि मोक्षार्थी पुरुष को बालवीर्य्य त्यागकर पण्डित वीर्य्य में प्रवृत्त होना चाहिए। नवम अध्ययन में कहा है कि-शास्त्रोक्त क्षान्ति आदि धर्मों को यथावत् पालन करता हुआ जीव संसार से मुक्त होता है । दशम अध्ययन में कहा है- सम्पूर्ण समाधि से युक्त पुरुष मोक्ष का भाजन होता है । ग्यारहवें अध्ययन में कहा है किसम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी उत्तम मार्ग को प्राप्त किया हुआ पुरुष क्लेशों का नाश करता है, बारहवें अध्ययन में कहा है कि-अन्यतीर्थिकों के दर्शनों के गुण और दोष के विचार के साथ अच्छी तरह जानता हुआ पुरुष उनमें श्रद्धा नहीं करता है । तेरहवें अध्ययन में कहा है कि-शिष्य के गुणदोष को जाननेवाला और सद्गुण में वर्तमान पुरुष कल्याण का भाजन होता है। चौदहवें अध्ययन में कहा है कि प्रशस्त भाव से जिसका हृदय वासित है, वह मनुष्य अशान्ति से रहित होता है । पन्द्रहवें अध्ययन में उपदेश किया है कि शास्त्रोक्त चारित्र का पालन
1. गाथैव षोडशं गाथाषोडशं तदेव गाथाषोडशकं गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यत्र तत्तथा वा ।