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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा २१ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् छाया - कुतः कदाचिन्मेधावी, उत्पद्यन्ते तथागताः । तथागता अप्रतिज्ञा चक्षु र्लोकस्यानुत्तराः ॥ अन्वयार्थ - ( तहागया) इस जगत् में फिर नहीं आने के लिए गये हुए (मेहावी) ज्ञानी पुरुष (कओ कयाइ उप्पज्जंति) कभी किस प्रकार उत्पन्न हो सकते हैं ? (अप्पडिना तहागया) निदानरहित तीर्थङ्कर और गणधर आदि (लोगस्सणुत्तरा चक्खू ) प्राणियों के लिए सर्वोत्तम नेत्र के समान हैं । भावार्थ इस जगत् में फिर नहीं आने के लिए मोक्ष में गये हुए ज्ञानी पुरुष कभी भी किस प्रकार इस जगत् में उत्पन्न हो सकते हैं ? । निदान न करनेवाले तीर्थकर और गणधर आदि, प्राणियों के सर्वोत्तम नेत्र हैं । टीका - कर्मबीजाभावात् 'कुतः' कस्मात्कदाचिदपि 'मेधाविनो' ज्ञानात्मकाः तथा अपुनरावृत्त्या गतास्तथागताः पुनरस्मिन् संसारेऽशुचिनि गर्भाधाने समुत्पद्यन्ते ?, न कथञ्चित्कदाचित्कर्मोपादानाभावादुत्पद्यन्त इत्यर्थः, तथा 'तथागताः ' तीर्थकृद्गणधरादयो, न विद्यते प्रतिज्ञा - निदानबन्धनरूपा येषां तेऽप्रतिज्ञा-अनिदाना निराशंसाः सत्त्वहितकरणोद्यता अनुत्तरज्ञानत्वादनुत्तरा 'लोकस्य' जन्तुगणस्य सदसदर्थनिरूपणकारणतश्चक्षुर्भूता हिताहितप्राप्ति - परिहारं कुर्वन्तः सकललोकलोचनभूतास्तथागताः सर्वज्ञा भवन्तीति ॥२०॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ इस जगत् में फिर नहीं आने के लिए मोक्ष में गये हुए ज्ञानी पुरुष अपवित्र गर्भाधानरूप इस संसार में फिर कभी भी किस प्रकार उत्पन्न हो सकते हैं ? । कर्मरूपी बीज न होने के कारण वे कभी किसी प्रकार भी उत्पन्न नहीं होते । निदान रहित अर्थात् सांसारिक पदार्थों की कामना से रहित, प्राणिओं के हित करने में तत्पर तीर्थङ्कर और गणधर आदि सत् और असत् अर्थ को उपदेश देने के कारण प्राणियों के लिए सबसे उत्तम नेत्र के समान हैं । आशय यह है कि सर्वज्ञ पुरुष, हित की प्राप्ति और अहित का त्याग करते हुए समस्त प्राणियों के नेत्र के समान हैं ||२०|| - अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेदिते । जं किच्चा णिव्वुडा एगे, निट्टं पावंति पंडिया ॥२१॥ छाया - अनुत्तरथ स्थानं तत्, काश्यपेन प्रवेदितम् । यत् कृत्वा निर्वृता एके, निष्ठां प्राप्नुवन्ति पण्डिताः ॥ अन्वयार्थ - (से ठाणे अणुत्तरे य) वह स्थान सबसे प्रधान है (कासवेण पवेदित्ते) काश्यप गोत्रवाले भगवान् महावीर स्वामी ने जिसका वर्णन किया है (जं किच्चा णिव्वुडा एगे पंडिया निद्वं पार्वति ) जिसका पालन करके निर्वाण को प्राप्त कोई पण्डित पुरुष संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं । भावार्थ - काश्यप गोत्री भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहा हुआ संयम नामक स्थान सबसे प्रधान है । पंडित पुरुष इसे पालकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं और वे संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं । टीका - न विद्यते उत्तरं - प्रधानं यस्मादनुत्तरं स्थानं तच्च तत्संयमाख्यं 'काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिना 'प्रवेदितम्' आख्यातं, तस्य चानुत्तरत्वमाविर्भावयन्नाह - 'यद्' अनुत्तरं संयमस्थानं 'एके' महासत्त्वाः सदनुष्ठायिनः ‘कृत्वा' अनुपाल्य 'निर्वृताः' निर्वाणमनुप्राप्ताः, निर्वृताश्च सन्तः संसारचक्रवालस्य 'निष्ठां' पर्यवसानं 'पण्डिताः' पापाड्डीनाः प्राप्नुवन्ति, तदेवंभूतं संयमस्थानं काश्यपेन प्रवेदितं यदनुष्ठायिनः सन्तः सिद्धिं प्राप्नुवन्त तात्पर्यार्थः ॥ २१॥ अपि च - टीकार्थ जिससे बढ़कर दूसरा स्थान नहीं है, उसे अनुत्तर कहते हैं, वह संयमनामक स्थान है । काश्यप गोत्र में उत्पन्न श्री महावीर स्वामी ने इसका वर्णन किया है। इस स्थान की सर्वोत्तमता प्रकट करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- पाप से हटे हुए और शुभ कर्म में आसक्त कोई धीर पुरुष जिस सर्वोत्तम संयमस्थान का पालन करके निर्वाण को प्राप्त करता हैं और निर्वाण को प्राप्त करके संसाररूपी चक्र के अन्त को प्राप्त करता हैं, भगवान् महावीर स्वामी ने उस संयम स्थान को बताया है ||२१|| ६२०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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