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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा २२-२३
पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् पंडिए वीरियं लद्धं, निग्घायाय पवत्तगं । धुणे पुव्वकडं कम्म, णवं वाऽवि ण कुव्वती
॥२२॥ छाया - पण्डितः वीयं लब्ध्वा, निर्घाताय प्रवर्तकम् । धुनीयात् पूर्वकृतं कर्म नवं वाऽपि न करोति ॥
अन्वयार्थ - (पंडिए णिग्धायाय पवत्तगं वीरियं लद्धं) पण्डित पुरुष, कर्म को विनाश करने में समर्थ वीर्य को पाकर (पुवकडं कम धुणे) पूर्वकृत कर्म का नाश करे (णवं वाऽवि ण कुव्वती) और नवीन कर्म न करे ।
भावार्थ - पंडित पुरुष, कर्म को विदारण करने में समर्थ वीर्य को प्रास करके पूर्वकृत कर्म का नाश करे और नवीन कर्म न करे ।
टीका - ‘पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञो 'वीर्य' कर्मोद्दलनसमर्थं सत्संयमवीर्यं तपोवीर्य वा 'लब्ध्वा' अवाप्य, तदेव वीर्य विशिनष्टि-निशेषकर्मणो 'निर्घाताय' निर्जरणाय प्रवर्तकं पण्डितवीर्य, तच्च बहुभवशतदुर्लभं कथञ्चित्कर्मविवरादवाप्य 'धुनीयाद्' अपनयेत् पूर्वभवेष्वनेकेषु यत्कृतम्-उपात्तं कर्माष्टप्रकारं तत्पण्डितवीर्येण धुनीयात् 'नवं च' अभिनवं चाश्रवनिरोधान्न करोत्यसाविति ॥२२।। किञ्च
टीकार्थ - सत् और असत् के विवेक का ज्ञाता जीव संपूर्ण कर्मों के नाश में समर्थ अनेक सेंकडों भवों में अति दुर्लभ पंडित वीर्य को कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त कर उस पंडित वीर्य के प्रयोग द्वारा पूर्व के अनेक भवों में संचित अष्ट कर्म का नाश करे एवं नवीन कर्म आश्रव के निरोध से न बांधे ॥२२॥
ण कुव्वती महावीरे, अणुपुव्वकडं रयं । रयसा संमुहीभूता, कम्मं हेच्चाण जं मयं
॥२३॥ छाया - न करोति महावीरः, भानुपूर्ध्या कृतं रयः । रजसा सम्मुखीभूताः कर्म हित्वा यन्मतम् ॥
अन्वयार्थ - (महावीरे) कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष, (अणुपुब्बकडं रयं) दूसरे प्राणी जो क्रमशः पाप करते हैं (ण कुब्बती) उसे नहीं करता है (रयसा) क्योंकि वह पाप कर्म पूर्वकृत पाप के प्रभाव से ही किया जाता है (जं मयं कम्मं हेच्चाण संमुहीभूता) परन्तु वह पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को छोड़कर मोक्ष के सम्मुख हुआ है। भावार्थ - दूसरे प्राणी मिथ्यात्व आदि क्रम से जो पाप करते हैं, उस कर्म का विदारण करने में समर्थ पुरुष नहीं
में हुए पाप के द्वारा ही नूतन पाप किये जाते हैं परन्तु उस पुरुष ने पूर्वकृत पापों का नाश कर दिया है और आठ प्रकार के कर्मों को त्यागकर वह मोक्ष के सम्मख हुआ है।
टीका - 'महावीरः' कर्मविदारणसहिष्णुः सन्नानुपूर्येण मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैर्यत्कृतं रजोऽपरजन्तुभिस्तदसौ 'न करोति' न विधत्ते, यतस्तत्प्राक्तनोपात्तरजसैवोपादीयते, स च तत्प्राक्तनं कर्मावष्टभ्य सत्संयमात्संमुखीभूतः, तदभिमुखीभूतश्च यन्मतमष्टप्रकारं कर्म तत्सर्वं 'हित्वा' त्यक्त्वा मोक्षस्य सत्संयमस्य वा सम्मुखीभूतोऽसाविति ॥२३॥ अन्यच्च- टीकार्थ - कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष, दूसरे जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगक्रम
तो पाप कर्म करते हैं, उसे वह नहीं करता क्योंकि वह पाप कर्म पूर्वभव में किये हुए पाप के द्वारा ही किया जाता है परन्तु उक्त वीर पुरुष ने सत् संयम का आश्रय लेकर अपने पूर्वकृत कर्म का नाश कर दिया है और अज्ञ जीवों के द्वारा माननीय जो आठ प्रकार के कर्म हैं, उन सभी का त्याग कर वह मोक्ष या सत्संयम के सम्मुख हुआ है ॥२३॥
से जो पाप कर्म करते
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