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पञ्चदशमादानीयाध्ययनम्
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १९-२० धर्मबीजानामार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिसकलेन्द्रियसामग्र्यादिरूपं दुर्लभं भवति, जन्तूनां ये धर्मरूपमर्थं व्याकुर्वन्ति, ये धर्मप्रतिपत्तियोग्या इत्यर्थः तेषां तथाभूतार्चा सुदुर्लभा भवतीति ||१८|| किञ्चान्यत्
टीकार्थ- पुण्य का सञ्चय नहीं किया हुआ जो जीव इस मनुष्य शरीर से अथवा इस उत्तम धर्म से भ्रष्टहोकर इस संसार में भ्रमण करता है, उसको फिर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है क्योंकि सम्यक्त्व से पतित पुरुष को उत्कृष्ट अर्धपुद्गल परावर्तकाल के पश्चात् फिर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । तथा धर्माचरण नहीं किये हुए पुरुष को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के योग्य अन्तःकरण का परिणाम प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । अथवा मनुष्य शरीर को अर्चा कहते हैं, वह भी जिसने धर्मरूपी बीज नहीं बोया है, उसको प्राप्त नहीं होता है। आर्य्यक्षेत्र, उत्तम कुल में उत्पत्ति और समस्त इन्द्रियों की पूर्णता इत्यादि सामग्री अत्यन्त दुर्लभ है । अर्थात् जो धर्म प्राप्ति करने योग्य जीव हैं, उनके समान लेश्या प्राप्त करना जीवों के लिए अत्यन्त कठिन है
॥१८॥
जे धम्मं सुद्धमक्खति, पडिपुन्नमणेलिसं ।
अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ ?
।।१९।।
छाया ये धर्म शुद्धमाख्यान्ति, प्रतिपूर्णमनीदृशम् । अनीदृशस्य यत् स्थानं, तस्य जन्मकथा कुतः ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो महापुरुष (पडिपुन्नमणेलिसं सुद्धं धम्मं अक्खंति) प्रतिपूर्ण, सर्वोत्तम, शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं (अलिसस्स जं ठाणं) वे सर्वोत्तम पुरुष के स्थान को प्राप्त करते हैं ( तस्स जम्मकहा कओ) फिर उनके लिए जन्म लेने की बात भी कहां है ?
भावार्थ - जो पुरुष प्रतिपूर्ण, सर्वोत्तम और शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं और स्वयं आचरण करते हैं, वे सर्वोत्तम पुरुष का जो सब दुःखों से रहित स्थान है, उसको प्राप्त करते हैं । उनके जन्म लेने और मरने की बात भी नहीं है ।
टीका - ये महापुरुषा वीतरागाः करतलामलकवत्सकलजगद्द्द्रष्टारः त एवंभूताः परहितैकरताः ‘शुद्धम्’ अवदातं सर्वोपाधिविशुद्धं धर्मम् 'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति स्वतः समाचरन्ति च 'प्रतिपूर्णम्' आयतचारित्र - सद्भावात्संपूर्णं यथाख्यातचारित्ररूपं वा 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं धर्मम् आख्यान्ति अनुतिष्ठन्ति (च) । तदेवम् 'अनीदृशस्य' अनन्यसदृशस्य ज्ञानचारित्रोपेतस्य यत् स्थानं सर्व- द्वन्द्वोपरमरूपं तदवाप्तस्य तस्य कुतो जन्मकथा ?, जातो मृतो वेत्येवंरूपो कथा स्वप्नान्तरेऽपि तस्य कर्मबीजाभावात् कुतो विद्यत ? इति, तथोक्तम् -
"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ||१||”
इत्यादि ॥ १९ ॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ जो महापुरुष, राग रहित हैं तथा हाथ में रखे हुए आँवले की तरह समस्त जगत् को देखनेवाले हैं और सदा दूसरे के हित करने में लगे रहते हैं, जो सब उपाधियों से वर्जित शुद्ध धर्म का उपदेश करते हैं, ( आशय यह है कि ) आयत चारित्र होने से जो धर्म परिपूर्ण है अथवा यथाख्यात चारित्र रूप है एवं जो सबसे उत्तम है, उसका जो प्रतिपादन करते हैं और स्वयं आचरण करते हैं, वे पुरुष ज्ञान और चारित्र से युक्त पुरुष का जो सब द्वन्द्वों से रहित स्थान है, उसको प्राप्त करते हैं । उनके विषय में जन्म लेने की बात भी कहां है ?। वे जन्म लेते हैं या मरते हैं, यह स्वप्न में भी नहीं होता क्योंकि उनके कर्म बीज नष्ट हो गये हैं, अत एव कहा है कि जैसे
बीज जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, इसी तरह कर्म रूपी बीज जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है ||१९||
कओ कयाइ मेधावी, उप्पज्जंति तहागया ।
तहागया अप्पडिन्ना, चक्खू लोगस्सणुत्तरा
॥२०॥
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