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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १७-१८ अंत करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहियं । आघायं पुण एगेसिं, दुल्लभेऽयं समुस्सए । ।।१७।। छाया - अन्तं कुर्वन्ति दुःखानामिहेकेषामाख्यातम् । आख्यातं पुनरेकेषां दुर्लभोऽयं समुच्छ्रयः ॥ अन्वयार्थ - (इह मेगेसिं आहियं) इस आर्हत प्रवचन में गणधर आदि का कथन है कि ( दुक्खाणं अंत करंति) मनुष्य ही समस्त दुःखों का नाश कर सकते हैं (पुण एगेसिं आघायं) फिर किन्हीं का कथन है कि ( अयं समुस्सए दुल्हे) यह मनुष्यभव पाना बड़ा कठिन है। भावार्थ - गणधर आदि का कथन है कि मनुष्य ही समस्त दुःखों का नाश कर सकते हैं दूसरे प्राणी नहीं । तथा किन्ही का कथन है कि मनुष्यभव प्राप्त करना बड़ा कठिन है । - टीका न मनुष्य अशेषदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, तथाविधसामग्र्यभावात्, यथैकेषां वादिनामाख्यातं, तद्यथादेवा एवोत्तरोत्तरं स्थानमास्कन्दन्तोऽशेषक्लेशप्रहाणं कुर्वन्ति, न तथेह - आर्हते प्रवचने इति । इदमन्यत् पुनरेकेषां गणधरादीनां स्वशिष्याणां वा गणधरादिभिराख्यातं, तद्यथा - युगसमिलादिन्यायावाप्तकथञ्चित्कर्मविवरात् योऽयं शरीरसमुच्छ्रयः सोऽकृतधर्मोपायैरसुमद्भिर्महासमुद्रप्रभ्रष्टरत्नवत्पुनर्दुर्लभो भवति, तथा चोक्तम् पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् " ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मनुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ||१||” इत्यादि ॥ १७ ॥ अपि च टीकार्थ जो प्राणी मनुष्य नहीं हैं, वे अपने समस्त दुःखो का नाश नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास वैसी सामग्री नहीं होती। इस विषय में किन्ही मतवादियों का यह कहना है कि देवता ही उत्तरोत्तर उत्तम स्थानों को प्राप्त करते हुए समस्त दुःखों का नाश कर सकते हैं परन्तु यह आर्हत प्रवचन ऐसा नहीं कहता है । गणधरों ने अपने शिष्यों से कहा है कि यह मनुष्य शरीर युग समिलादि न्याय से जीव को बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। जिसने धर्म सञ्चय नहीं किया है, उसको यह शरीर पुनः प्राप्त नहीं होता है, जैसे महा समुद्र में गिरा हुआ रत्न फिर से नहीं मिलता है, इसी तरह यह भी दुर्लभ है। विद्वानों ने कहा है कि यह मनुष्य शरीर खद्योत का प्रकाश और बिजली के विलास के समान अत्यन्त चञ्चल है, इसलिए यह यदि अगाध संसार सागर में गिर गया तो फिर इसका मिलना अत्यन्त दुर्लभ है ||१७|| - इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लभा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मट्टं वियागरे छाया - इतो विध्वंसमानस्य, पुनः सम्बोधिर्दुर्लभा । दुर्लभा तथार्चा, ये धर्मार्थं व्यागृणाति ॥ अन्वयार्थ - (इओ विद्वंसमाणस्स ) जो जीव इस मनुष्य शरीर से भ्रष्ट हो जाता है, उसको (पुणो संबोहि दुल्लभा ) फिर बोध प्राप्त होना दुलर्भ है (तहच्चाओ दुलहाओ ) सम्यग्दर्शन की प्राप्तियोग्य हृदय का परिणाम दुर्लभ है (जे धम्मट्ठं वियागरे) जो जीव धर्म की व्याख्या करते हैं अथवा धर्म को प्राप्त करने योग्य हैं, उनकी लेश्या प्राप्त करना कठिन है । ६१८ भावार्थ - जो जीव इस मनुष्य शरीर से भ्रष्ट हो जाता है, उसको फिर बोध प्राप्त होना दुर्लभ है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के योग्य अन्तःकरण का परिणाम होना बड़ा कठिन है। जो जीव धर्म की व्याख्या करते हैं तथा धर्म की प्राप्ति के योग्य हैं, उनकी लेश्या प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । - ।।१८।। टीका इतः' अमुष्मात् मनुष्यभवात्सद्धर्मतो वा विध्वंसमानस्याकृतपुण्यस्य पुनरस्मिन् संसारे पर्यटतो 'बोधि:' सम्यग्दर्शनावाप्तिः सुदुर्लभा, उत्कृष्टतः अपार्धपुद्गलपरावर्तकालेन यतो भवति, तथा 'दुर्लभा' दुरापा तथाभूतासम्यग्दर्शनप्राप्तियोग्या 'अर्चा' लेश्याऽन्तःकरणपरिणतिरकृतधर्माणामिति, यदिवाऽर्चा - मनुष्यशरीरं तदप्यकृत1. शरीरमेव पुगलसंघातत्वात्समुच्छ्रयः 'उस्सय समुस्सए वा' इति वचनात् समुच्छ्रय एव वा देहवाचकः शरीरशब्दस्तु विशेषणं । 2. वान्तसम्यक्त्वधर्मस्यैतावताऽवश्यं सम्यक्त्वस्य पुनः प्राप्तिः ।
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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