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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा ३
पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् उसके समान दोनों ही विज्ञानों से वस्तु के सामान्य और विशेष अंश को जाननेवाला दूसरा नहीं है। कहने का आशय यह है कि- उस पुरुष का ज्ञान दूसरे पुरुषों के ज्ञान के समान नहीं है, इसलिए मीमांसकों ने जो यह कहा है कि- सर्वज्ञ यदि सब पदार्थों के ज्ञाता है तो उनको सदा स्पर्श आदि का ज्ञान बना रहने से अनभिमत वस्तु के रसास्वाद का ज्ञान भी होना चाहिए, सो इन कथन से खण्डित समझना चाहिए तथा वे जो यह कहते है कि- सामान्यरूप से सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाने पर भी अरिहन्त ही सर्वज्ञ हैं, इसमें कोई हेतु नहीं है इसलिए अरिहन्त ही सर्वज्ञ हैं, यह बात नहीं बन सकती है। जैसा कि उन्होंने कहा है -
__ “यदि अरिहन्त सर्वज्ञ हैं तो बुद्ध सर्वज्ञ नहीं हैं इसमें क्या प्रमाण है ? | यदि दोनों ही सर्वज्ञ हैं तो इन दोनों में मतभेद क्यों ? "
इस आक्षेप का परिहार करने के लिए कहते हैं कि- "अनीदृशस्य" अर्थात् जो पुरुष अनन्यसदृश पदार्थ को कहनेवाला है, वह बौद्ध आदि दर्शनों में नहीं है क्योंकि वे द्रव्य और पर्याय दोनों को स्वीकार नहीं करते हैं । शाक्य मुनि सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हुए केवल पर्याय को ही मानते हैं, द्रव्य को नहीं मानते, परन्तु द्रव्य के बिना निर्बीज होने के कारण पर्याय भी नहीं हो सकते हैं । इसलिए पर्याय माननेवाले को पर्यायों का आधार स्वरूप परिणामी द्रव्य अवश्य मानना चाहिए परन्तु शाक्य मुनि परिणामी द्रव्य नहीं मानते हैं, इसलिए वे सर्वज्ञ नहीं है । तथा कपिल उत्पत्ति विनाश रहित स्थिर एक स्वभाववाला एकमात्र द्रव्य को ही मानते हैं, परन्तु प्रत्यक्ष अनुभव किये जानेवाले कार्य करने में समर्थ पर्यायों को नहीं मानते हैं, लेकिन पर्याय रहित द्रव्य होता नहीं है, इसलिए कपिल भी सर्वज्ञ नहीं हैं। तथा दूध और पानी की तरह द्रव्य और पर्याय अभिन्न हैं, तथापि उनको अत्यन्त भिन्न माननेवाले उलूक भी सर्वज्ञ नहीं हैं। इस प्रकार असर्वज्ञ होने के कारण दूसरे दर्शनवालों में कोई भी द्रव्य और पर्याय रूप अनन्यसदृश उभयविध पदार्थ का वक्ता नहीं है, इसलिए एकमात्र अरिहन्त ही भूत वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों के पदार्थों को ठीक-ठीक कहनेवाले हैं, दूसरे दर्शनवाले नहीं, यह बात सिद्ध हुई ॥२॥
- साम्प्रतमेतदेव कुतीथिकानामसर्वज्ञत्वमर्हतश्च सर्वज्ञत्वं यथा भवति तथा सोपपत्तिकं दर्शयितुमाह -
- कुतीर्थिक सर्वज्ञ नहीं है किन्तु अरिहन्त सर्वज्ञ हैं, यह जिस प्रकार हो सकता है, उसे शास्त्रकार युक्ति सहित बताते हैं - तहिं तहिं सुयक्खायं, से य सच्चे सुआहिए। सया सच्चेण संपन्ने, मित्तिं भूएहिँ कप्पए
॥३॥ छाया - तत्र तत्र स्वाख्यातं, तच्च सत्यं स्वाख्यातम् । सदा सत्येन सम्पयो मैत्री भूतेषु कल्पयेत् ॥
अन्वयार्थ - (तहिं तहिं सुयक्खाय) श्री तीर्थकर देव ने भिन्न-भिन्न स्थानों में जो जीवादि पदार्थों का भली भाँति कथन किया है (से य सच्चे सुआहिए) वही सत्य है और वही सुभाषित है। (सया सच्चेण संपन्ने) अतः सदा सत्य से युक्त होकर (भूएहि मित्तिं कप्पए) जीवों के साथ मैत्री करनी चाहिए।
भावार्थ - श्री तीर्थकर देव ने भिन्न-भिन्न स्थलों में जो जीवादि तत्त्वों का अच्छी तरह उपदेश किया है. वही सत्य है और वही सुभाषित है, इसलिए मनुष्य को सदा सत्य से युक्त होकर जीवों में मैत्री भाव रखना चाहिए।
टीका - तत्र तत्रेति वीप्सापदं यद्यत्तेनार्हता जीवाजीवादिकं पदार्थजातं तथा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव इतिकृत्वा संसारकारणत्वेन तथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति मोक्षाङ्गतयेत्येतत्सर्वं पूर्वोत्तराविरोधितया युक्तिभिरुपपन्नतया च सुध्वाख्यातं-स्वाख्यातं, तीर्थिकवचनं तु 'न हिंस्याद्भूतानी'ति भणित्वा तदुपमर्दकारम्भाभ्यनुज्ञानात्पूर्वोत्तरविरोधितया तत्र तत्र चिन्त्यमानं नियुक्तिकत्वान्न स्वाख्यातं भवति, स चाविरुद्धार्थस्याख्याता रागद्वेषमोहानामनृतकारणानामसंभवात् सद्भ्यो हितत्वाच्च सत्यः 'स्वाख्यातः' तत्स्वरूपविद्धिः प्रतिपादितः । रागादयो ह्यनृतकारणं ते च तस्य न सन्ति अतः कारणाभावात्कार्याभाव इतिकृत्वा तद्वचो भूतार्थप्रतिपादकं, तथा चोक्तम्
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