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________________ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा २ करने वाला वह पुरुष है, यह जानना चाहिए ॥११॥ - यश्च घातिचतुष्टयान्तकृत्स ईदृग्भवतीत्याह - ___ - जो पुरुष चार प्रकार के घाती कर्मों को नाश करनेवाला है, वह इस प्रकार का होता है, यह शास्त्रकार बताते हैं - अंतए वितिगिच्छाए, से जाणति अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होइ तहिं तहिं ॥२॥ छाया - अन्तको विचिकित्सायाः स जानात्यनीदृशम् । अनीदृशस्याख्याता, स न भवति तत्र तत्र ॥ अन्वयार्थ - (वितिगिच्छाए अंतए) जो संशय को दूर करनेवाला है (से अणेलिसं जाणति) वह पुरुष सबसे ज्यादा पदार्थ को जानता है। (अणेलिसस्स अक्खाया) जो पुरुष सब से बढ़कर वस्तुतत्त्व को बतानेवाला है (से तहिं तहिं ण होइ) वह बौद्धादि दर्शनों में नहीं है। भावार्थ - संशय को दूर करनेवाला पुरुष सब से बढ़कर पदार्थ को जानता है । जो पुरुष सब से बढ़कर वस्तुतत्त्व का निरूपण करनेवाला है, वह बौद्धादि दर्शनों में नहीं है। ___टीका - विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिः संशयज्ञानं तस्यासौ तदावरणक्षयादन्तकृत् संशयविपर्ययमिथ्याज्ञानानामविपरीतार्थपरिच्छेदादन्ते वर्तते, इदमुक्तं भवति-तत्र दर्शनावरणक्षयप्रतिपादनात् ज्ञानाद् भिन्नं दर्शनमित्युक्तं भवति, ततश्च येषामेकमेव सर्वज्ञस्य ज्ञानं वस्तुगतयोः सामान्यविशेषयोरचिन्त्यशक्त्युपेतत्वात्परिच्छेदकमित्येषोऽभ्युपगमः सोऽनेन पृथगावरणक्षयप्रतिपादनेन निरस्तो भवतीति, यश्च घातिकर्मान्तकृदतिक्रान्तसंशयादिज्ञानः सः 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं जानीते न तत्तुल्यो वस्तुगतसामान्यविशेषांशपरिच्छेदक उभयरूपेणैव विज्ञानेन विद्यत इति, इदमुक्तं भवति-न तज्ज्ञानमितरजनज्ञानतुल्यम्, अतो यदुक्तं मीमांसकैः- सर्वज्ञस्य सर्वपदार्थपरिच्छेदकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सर्वदा स्पर्शरूपरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदादनभिमतद्रव्यरसास्वादनमपि प्राप्नोति, तदनेन व्युदस्तं द्रष्टव्यं, यदप्युच्यते-सामान्येन सर्वज्ञसद्भावेऽपि शेषहेतोरभावादहत्येव संप्रत्ययो नोपपद्यते, तथा चोक्तम्“अर्ह(सह)न् यदि सर्वचो, बुन्दो नेत्यत्र का प्रमा ? | अधोभावपि सर्वशी, मतभेदस्तयोः कथम् ? ||१||" इत्यादि, एतत्परिहारार्थमाह- 'अनीदृशस्य' अनन्यसदृशस्य यः परिच्छेदक आख्याता च नासौ 'तत्र तत्र' दर्शन बौद्धादिके भवति, तेषां द्रव्यपर्याययोरनभ्युपगमादिति, तथाहि-शाक्यमुनिः सर्वं क्षणिकमिच्छन् पर्यायानेवेच्छति न द्रव्यं, द्रव्यमन्तरेण च निर्बीजत्वात् पर्यायाणामप्यभावः प्राप्नोत्यतः पर्यायानिच्छताऽवश्यमकामेनापि तदाधारभूतं परिणामि द्रव्यमेष्टव्यं, तदनभ्युपगमाच्च नासौ सर्वज्ञ इति, तथा अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावस्य द्रव्यस्यैवैकस्याभ्युपगमादध्यक्षाध्यवसीयमानानामर्थक्रियासमर्थानां पर्यायाणामनभ्युपगमानिष्पर्यायस्य द्रव्यस्याप्यभावात्कपिलोऽपि न सर्वज्ञ इति, तथा क्षीरोदकवदभिन्नयोर्द्रव्यपर्याययोर्भेदेनाभ्युपगमादुलूकस्यापि न सर्वज्ञत्वम् । असर्वज्ञत्वाच्च तीर्थान्तरीयाणां मध्ये न कश्चिदप्यनीदृशस्य-अनन्यसदृशस्यार्थस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपस्याख्याता भवतीत्यर्हन्नेवातीतानागत-वर्तमानत्रिकालवर्तिनोऽर्थस्य स्वाख्यातेति न तत्र तत्रेति स्थितम् ॥२॥ टीकार्थ - चित्त की अस्थिरता यानी संशयज्ञान को विचिकित्सा कहते है, उसके आवरणीय कर्म के क्षय करने के कारण जो पुरुष संशय का अन्त करनेवाला है, वह संशय का अन्त करनेवाला है, वह संशय विपर्याय और मिथ्याज्ञान को ठीक-ठीक जानने के कारण इनके अन्त में निवास करता है। यहाँ दर्शनावरणीय कर्म के क्षय का कथन किया है, इसलिए दर्शन को ज्ञान से भिन्न जानना चाहिए अतः जिन का सिद्धान्त यह है कि- "सर्वज्ञ पुरुष का एक ही ज्ञान अचिन्त्यशक्ति से युक्त होने के कारण वस्तु के सामान्य और विशेष दोनों का निश्चय करता है।" सो यहाँ अलग दर्शनावरणीय के क्षय कहने से खण्डित समझना चाहिए । जो पुरुष चार प्रकार के घाती कर्मों का नाश करनेवाला और संशयादि ज्ञान को उल्लंघन किया हुआ है, वह अनन्यसदृश पदार्थ का ज्ञाता है,
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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